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( ७५६ )
(२)माहारकद्विक ३
देवत्तिक २ नरकटिक २ बैंक्रियिकद्विक २ मनुष्यदिक २
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(३) उच्चगोत्र १
४ प्रकृतियों में
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ये १२ प्रकृतियां ये २ संक्रमण
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(१) संज्वलन कषाय के ३
(कोध-मान-माया) पुरुषवेद वेद १ ४ प्रकृतियों में
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ये ४ प्रकृतियां ये २ संक्रमण
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(१) प्रोवारिकटिक २
वष्यवृषभनाराच सं. १ , तीर्थकर प्र०१ ४ प्रकृतिमों में
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ये ४ प्रकृतियां ये ३ संक्रमण
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(१) हास्य-रति २
भय-जुगुप्सा २
ये ४ प्रकृतियां
जोड ३६ प्रकृतियां
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सबका जाड़
३७, स्थिति और अनुभाग बंध के, तथा प्रवेश ष के संक्रमण के गुण-स्थानों की संख्या कहते हैं-कषायों का उदय ६० वें गुरण-स्थान तक ही है इसलिये स्थिति और अनुभाग का बंध नियम से सूक्ष्म सांपराय गुण-स्थान तक हो है । क्योंकि उक्त बंध का कारण काय वहीं सक है और बंधरूप प्रदेशों (कर्म परमारणों का) का संक्रमण भी सूक्ष्म-सापराय गुण स्थान तक ही है । करोंकि 'बेथे भवापवतो' इस गाथा मुत्र के अभिप्राय से स्थिति बंधनक ही संक्रमण होना संभव है। साता वेदनीय का प्रकृति और प्रदेश बंध ११से १३वे गुण स्थान तक होता है । (देखो गो० क. गा० ४२६)