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४५.. जब किसी एक पर्याप को छोड़कर (मरकर) वें नरक वाले जीव ३रे या थे गुणस्थानवर्ती दूसरं विसी पर्याय में उशन होना (जन्म लेन्स) यथा- अपने-अपने गणस्थानों में मनुष्यद्विक तथा उच्च सम्भव सिवाते हैं।
गोत्र उनको नियम से बांग्रता है। परन्तु वहां पर (७वीं १. नरकगति नारकी जीव मरकर कहां-कहां सत्पन्न
पृथ्वी में) उत्पन्न हुए सासादन मिथ-प्रसयत गुणस्थान होते हैं ? समाधान रत्नप्रभा, शकरप्रभा, बालकप्रभा इन
वाले जीव जिस समय मरगा को प्राप्त होते हैं उस समय तीन पृथ्वी याले नारकी जीव मरकर गर्भज संज्ञी,
मिथ्यात्न गुणस्थान को प्राप्त होकर ही मरण करते हैं। पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, कर्म भूमिया मनुष्य अथव। तियंचपर्याय
(देखो गो० के० गा० ५३६)। में उत्पन्न होते हैं । परन्तु वे चक्रवती, बलभद्र, म सम्मान,
२.तियचयति । तियच जीव मरण करके कहाँ कहाँ प्रतिनारायण नहीं होते।
उत्पन्न होते ? समाधान-तियं च गति में बादर या सूक्ष्म, विशेष-अढ़ाईीप में १५ कर्म भूमियां हैं उनमें
पर्याप्त या अपर्याप्त, ऐसे अग्निकायिक अथवा वायुकायिक तिर्वच अथवा मनुष्य और लबणोदधि, कालोदधि समुद्रों ये दोनों मरण करके नियम से लियंच गति में ही उत्पन्न में और स्वयं प्रभाचल पर्वत के प्रागे अर्ध स्वयं भूरमण- होते हैं। परन्तु भोगभूमि में पंचे न्द्रय विर्यच नहीं होते । द्वीप में और सम्पूर्ण स्वयं भरमण समद्र में मोर उसके तथापि वे बादर, सुक्ष्म पर्याप्त, अपर्याप्त. प्रस्त्री, अग्नि, प्राग मध्यलोक के चारो कोनों में धर्मा प्रादि तीन पृथ्वी जल, वायु, साधारण वनस्पति, पर्याप्त, अपर्याप्त, वाले नारकी जीव जलचर, स्थलचर और नभचर तिर्यच प्रतिष्ठत, अप्रतिष्ठित, प्रत्येक बनस्पति, हीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, हो सकते हैं।
प्रसंज्ञी, सजीपंचेन्द्रिय तिर्यच में उत्पन्न होते हैं। ___अढाई द्वीप में ३० भोगभूमिया और ६६ कुभोग- शेष एकेन्द्रिय अर्थात् पृथ्वीकायिक, जलकायिक और भूमि या के तिर्यत्र या मनुष्य में से कोई ऊपर के तीन वनस्पलिकायिक ये बादर, सुक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त इन पृथ्बो में मारकी होकर उत्पन्न नहीं होते। उसी तरह सब अवस्थामों वाले नित्यनिगोद, इतरनिगोद, वनस्पति मानपोत्तर पर्वत और स्वय प्रभाचल इन दोनों के और पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रतिद्वित, अप्रतिक्षित प्रत्येक असंख्यात द्वीप-समुद्र में भी उत्पन्न नहीं होते।। वनस्पति तथा इसी प्रकार पर्याप्त, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, थे पंकप्रभः. ५वें धूमप्रभा दें तमःप्रभा इन तीन
श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ये सब जीव मरकर अग्नि और वायु
प्रीष्टिय पृथ्वी वाले नारकी जीव मरकर तीर्थंकरादि के सिवाय
कायिक छोड़कर शेष सत्र तियंचों में उत्पन्न होते हैं और पूर्वोक्त तिर्यंच अथवा मनुष्यपर्याय में उत्पन्न होते हैं।
तीर्थकरादि त्रसठ शलाका (पदविश्वारक) पुरुषों के बिना हरे बालुका पृथ्वी सक के नारकी जीव तीर्थकर हो
शेष मनुष्यपर्याय में भी उत्पन्न होते हैं । नित्य और सकते हैं। इनके धागे के अर्थात् '४थे पृथ्वी बारने से लेकर
इतरनिगोद में के मूक्ष्म जीव रण मर। मनुष्य हो प्रागे के नारकी जीव तीर्थकर नहीं हो सकते।
जाय तो वे सम्यक्त्व और देवासंयम ग्रहगा कर सकते ४थे श्त्री तक के नारकी जीव चरम शरीरी हो
है। परन्तु सकल संवम नहीं ग्रहरा कर स ते हैं। सकते हैं।
असंजीपचेन्द्रिय जोध मरण करके पुर्वोक्त नियंच अथवा में पृथ्वी तक के नारकी जीव सकलसंयमी हो सकते हैं।
मनुष्वगति में उत्पन्न होता है । तथा घर्मा नाम वाले पहले वें पृथ्वी तक के नारकी जीव देशसंयत गुणास्थान नरक में और टेवयुगल में अर्थात् भवनवासी या यंतर तक शियंच अथवा मनुष्य हो सकते हैं। परन्तु इतनी देवों में उत्पन्न होता है। अन्य देव अथवा नारकी नहीं विशेषता है कि
होता 1 क्योंकि असजी जीवों की बावु का उत्कष्ट स्थिति ७ नरक वाले जीव पूर्वोक्त तिर्यच (मिथ्याप्टि) बन्ध पत्य के पसख्यास्वा भाग से अधिक नहीं हो सकता पर्याय में ही उत्पन्न होते हैं। (देखो गो. कल गा. है। (दयो गो० क० -५४०)।
संझी पंचेन्द्रिय तिथंच भी प्रसंशी पंधेन्द्रिय को तरह