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पर्यंत अपकर्षण करण होता है, अर्थात् अंतकांडक के अंतफालिपर्यंत है और क्षपक अवस्थायें अनिवृत्तिकरण गुण स्थान के २ भाग से ध्वे भाग तक क्षय हुई जो आठ कषाय को लेकर २० प्रकृतियां हैं उनका भी अपनेअपने क्षयदेश पर्यंत अपकर्षण करण है, जिस स्थान में क्षय हुआ हो सको 'क्षयदेश' कहते हैं
।
(देखो गो क०
में कोष्टक नं० ११६
( १० उपशम श्रेणी में मिथ्यात्व सम्यङ् मिध्यात्व सम्यक्त्व प्रकृति इन तीन दर्शन मोहनीय प्रकृतियां श्रर हवे गुण स्थान के पहले भाग में क्षय हुई जो नरकद्विकादिक १६ प्रकृतियां इन १६ प्रकृतियों का प्रपकर्षण करण ११वे उपशांत मोह गुण स्थान पर्यंत होता है, परन्तु शेष आठ कषायादि वे गुण स्थान में नष्ट होने वाले २० प्रकृतियों का अपने अपने उपशम करने के ठिकाने तक अपकर्षण करण है । (देखो को० न० ११६ )
(११) श्रतानुबंधी चार कषाय का अपकर्षण करणं
संयत गुण स्थान से लेकर ७वा अप्रमत्त गुण स्थान तक यथासंभव जहां विसंयोजनं (अन्यरूप परि मन ) हो वहां तक ही होता है तथा नरकायु के ४ असंमत गुण स्थान तक और तिर्यचायु के ५वे देश संयत गुण स्थान तक उदीरणा, सत्य, उदयकरण - ये तीन
करण प्रसिद्ध ही हैं, क्योंकि पूर्व में इनका कथन चुका है।
(१) उपशम सम्यक्त्व के सन्मुख हुए जीव के मिथ्यात्व गुण स्थान के अंत मे एक समय अधिक एक भावली पर्यंत मिध्यात्व प्रकृति का उदीरणकरण होता है, क्योंकि
उसका उदय उतने ही काल तक है पीर सूक्ष्म लोभ का उदीरणाकरण १०वे सुक्ष्म सांपराय गुण स्थान में ही होता है, क्योंकि इससे आगे अथवा अन्यत्र उसका उदय
ही नहीं है ।
(१३) जो कर्म उदावली में प्राप्त नहीं किया जा सके अर्थात् जिसकी उदीरा न हो सके ऐसा उपशांत (उपशम) करण, जो उदीरणारूप भी न हो सके और संक्रमण रूप भी न हो सके ऐसा निर्धात्तिकरण तथा जो उदावली में भी ना सके, जिसका संक्रमण भी न हो सके और जिसका उत्कर्षण और प्रपकर्षण भी न हो सके अर्थात् जिसकी ये चारों क्रिया नहीं हो सकती हों ऐसा निकाचितकरण, ये सीन करण वे अपूर्वकरण गुण स्थान तक ही होते हैं ।
भावार्थ इसके ऊपर यथासंभव उदयावली प्राषि में प्राप्त होने की सामर्थ्य वाले ही कर्म परमाणु पाये जाते हैं । (देखो गो० क० गा० ४४१ से ४५० )