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( ७६० )
४१. मूल प्रकृतियों के अन्ध-उदयवीरस्य के भेदों के लिये हुये स्थानों के गुण स्थानों में कहते हैं
( देखो गो० क०
० ४५१ )
स्थान - एक जीव के एक काल में जितनी प्रकृतियों का सम्भव हो सके उन प्रकृतियों के समूह
का नाम स्थान है ।
गुरण स्थान
बन्ध स्थान
१-२-४-४-६-७ गुण० में
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३-८-९ गुण० में
१० वें गुरण स्थान में
११-१२-१३ गुण० में
१४ गुण स्थान में
मूल प्रकृतिय
'ज्ञाना० वर्श० वेद० मोह० प्रायु नाम गोत्र श्रंत
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विशेष विवरण
ये ७ प्रकार के अथवा
ये प्रकार के कर्म को जीव बांधते हैं ।
ये ७ प्रकार के ही कर्म संघ रूप होते हैं ।
ये ६ प्रकार के ही कर्मों का बंध होता है ।
१ वेदनीय कर्म का
बंध है ।
किसी प्रकृति का भी बंध नहीं होता है ।
सूचना – इस प्रकार सर्व गुण स्थानों के मिलकर मूल प्रकृतियों के यन्ध स्थान चार हैं। (८-७-६-१ इन प्रकृतियों का बन्ध होना सम्भव है इसलिये ४ स्थान होते हैं, इन स्थानों के मुजाकार बन्ध, अल्पतर बन्ध और अस्थिर बन्ध ये ३ प्रकार के बन्ध होते हैं। चौथा भवक्तव्य बन्ध मूल प्रकृतियों में नहीं होता ।
(देखो गो० क० ग्रा० ४५१-४५२-४५३)
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