Book Title: Chautis Sthan Darshan
Author(s): Aadisagarmuni
Publisher: Ulfatrayji Jain Haryana

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Page 770
________________ २३. मून प्रकृतियों के बंघ के पार भेद निम्न प्रकार से परिणमनता हुआ जो पुद्गलद्रव्य वह जब तक उदय जानना स्वरूप (फल देने स्वरूप) अथवा उदोरणा (बिना समय (१) सावि बंध - जिस कर्म के बंध का अभाव होकर के कर्म का पाक होना) स्वरूप न हो तब तक उस काल अथात् बध-व्युच्छात्त के बाद फिर वहा कम बष उस के माधा कॉल कहते हैं। (देखो मो. क. गा० १५५) सादि बंध कहते हैं। (१) ग्रावाषा को उवय को अपेक्षा मूल प्रकृतियों में (२) प्रनावि बंधजो गुण स्थानों की श्रेणी पर बलसाते हैं- यदि कोई एक कर्म की स्थिति एक कोड़ा ऊपर को नहीं चहा अर्थात बंध-त्यच्छिसि के पहले जो कोड़ी सागर प्रमाण हो तो उस स्थिति की भावाधा काल बंध अव्याहत चालू रहता है, जिसके बंध का प्र.वि नहीं(१००) सौ वर्ष प्रमाग जानना और बाकी स्थितियों को हुया बद अनादि बंध है। प्रामाषा काल इसी के अनुसार राशिक विधि से भाग (३) ध्रव बंध-जिस बंध का ग्रादि तथा अंत न देने पर जो जो प्रमाण मावे उतनी-उत्सनी जानना। यह हो अर्थात जिस बंध का सतत चासू रहता है वह धुन बंध है। क्रम प्राय कर्म के सिवाय सात कर्मों की प्राबधा के लिये (४) अनार .... जिस उदय की अपेक्षा से है। (देखो गो० का गा० १५६) से मध्रुव-बंध कहते हैं। २१ अन्तः कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण स्थिति की ज्ञानाबरण, दर्शनावरा, मोहनीय नाम गोत्र, मावाचा काल एक अन्तमु हतं जानना भोर सम जघन्य स्थितियों की उससे समातगुगी क्रम (संख्यातवें भाग) अंतराय ये छह कर्मों का प्रकृति बंध सादि, अनादि, ध्रुव पानाधा होती है। देखो गो० क० गा० १५७) प्रध्रुव रूप चारों प्रकार का होता है। (३) प्रायुकर्म की पाबाघा काल-कर्मभूमि के तीसरे वेदनोय कर्म का बंध सादि बिना तीन प्रकार का होता है। उपशम श्रेणी चड़ते समय और नीचे तिसंच और मनुष्यों की उस्कृष्ट प्रायु कर्म की भावाधा काल उतरते समय साता वेदनोय का सतत बंध होता रहता है कोहपूर्व के तीसरे भाग प्रमाण है और अपन्य मायु की इसलिये सादि बंध नहीं होता । पायाचा काल प्रसंक्षेपाता प्रमाण अर्थात जिससे थोड़ा प्रायु कर्म का सादि और मधव ये दो प्रकार काही काल कोई न हो ऐसे पावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण बंध होता है। एक पर्याय में एक समय, दो समय या तक है। प्रायु कर्म की पाबाधा स्थिति के अनुसार भाग उत्कृष्ट माठ समय में प्राय कर्म का बंध होता है। की हुई नहीं है अर्थात् जसे अन्य कर्मों में स्थिति के इसलिये सादि है और पन्तमहतं सा ही बंध जोता अनुसार भाग करने से प्राबाधा का प्रमाण होता है. इस इसलिये प्रघुव है। तरह इस प्रायु कर्म में नहीं है। देव और नारकीयों को मरण के पहले छ: महीना भानावरण को पांच प्रकृतियों का बंध किसी जीव पौर भोगभूमियों के जीवों को नव महोना बाकी रहते के दसवें गुण स्थान तक अव्याहत होता था, जम वह हुए घायु का बंध होता है यह प्रायुबंध भी विभाग से जीन ग्यारहवें में गया तब बंध का प्रभाव पा, पीछे होता है। यायु का बंध होने पर अगले पर्याय से प्रारम्भ ग्यारहवें गुण स्थान से पड़कर (च्युत होकर) फिर दसवें में उसका उदय होता है । बंध से मेफर उदय तक का जो में प्राया तम ज्ञानावरण की पांच प्रकृतियों का पुन: बंध काल वही पायाषा काल है । (देखो गो। क० गा०१५८) हुमा, ऐसा बंध सादि कहलाता है। (४) उवीरणा की अपेक्षा प्रभाषा काल-पायु कर्म दसवें गुण स्थान वाला ग्यारहवें में जब तक प्राप्त को छोड़कर शेष सात कमों की उदीरगा की अपेक्षा से नहीं हुमा वहां तक ज्ञानावरण का प्रनादि बंध है, ग्राबाधा एक प्रावली मात्र है तब तक उदीरणा नहीं होती क्योंकि वहाँ तक अनादि काल से उसका बंध चला पाता है। और परभव की भायु (बध्यमान घायु) जो बांध लीमी है ध्रुव बंध प्रभव्य जीव के हो-है। अध्रुव बंध भव्य उसकी उदीरणा या उदय भुज्यमान प्रायु में निश्चयकर नहीं जीवों के होता है । (देखो गो० क० गा० १२२-१२३) होली । अर्थात वर्तमान प्रायु की (भज्यमान प्राय की) २४ पाबाबा काल का लक्षारण - कारिए शरीर नामा उदीरणा तो हो सकती है, परन्तु आगामी प्रायु की .. नामकर्म के उदय से योग द्वारा प्रात्मा में कम स्वरूप कर्म (बध्यमान प्रायु की) नहीं होती (देखो गो० के० गा०१५६)

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