Book Title: Chautis Sthan Darshan
Author(s): Aadisagarmuni
Publisher: Ulfatrayji Jain Haryana

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Page 757
________________ ( ७२४ ) (१७) मिष्यत्व नाम दर्शनमोहनीय कर्म-जिसके उदय से मिश्रया (खोटा ) श्रखान हो, अर्थात सर्वज्ञ-कथित वस्तु के यथार्थ स्वरूप में रुचि ही न हो. और न उस विषय में उद्यम करे तथा न हित अहिल का विचार ही करे वह मिथ्यात्व नाम दर्शन मोहनीय है । (१८) सम्यग्मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्म जिस कर्म के उषय से परिणामों में वस्तु का यथार्थ श्रद्धान और अयथार्थ श्रद्धान दोनों हो मिले हुए हों उसे (१) सम्यग्मिमत्व दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं। उन परिणामों को सम्यक्त्व या मिथ्यात्व दोनों में से किसी मैं भी कह पृष् माना है । (१६) सम्यमस्थ प्रकृति दर्शनमोहनीय कर्म-जिस कर्म के उदय से सम्यक्त्व गुण का मूल से घात तो न हो परन्तु परिणामों में कुछ चलायमानपना तथा मलिनपना और अपना हो जाय उसे सम्यक्त्व प्रकृति दर्शनमोहनीय कर्म कहते है। इस प्रकृति वाला सम्यत् दृष्टि कहलाता है. [ कषाय - 'कषन्ति हिसन्तीति कषायाः ' जो घात करे अर्थात् गुण को उके प्रकट नहीं होने दे उसको कषाय कहते हैं उस कषाय वेदनीय के श्रनन्तानुबंधी, मप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन, ऐसे चार अवस्था हैं । इन हरेक के क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार चार भेद हैं। इन अवस्थाओं का स्वरूप भी कम से कहते हैं - अनन्त नाम संसार का है, परन्तु जो उसका कारण हो वह भी अनन्त कहा जाता है । जैसे कि प्राण के कारण श्रश्न को प्राण कहते हैं। सो यहां पर मिध्यात्व परिणाम को श्रनन्त कहा गया है। क्योंकि वह अनंत-संसार का कारण है । जो इस अनंत- मिथ्यात्व के अनु- साथ साथ बधे उस कषाय को अनन्तानुबंधी कहते हैं। उसके बार भेद हैं - (२०) अनन्तानुबंधी कोध, (२१) मनन्तानुबंधी मान, (२२) अनन्तानुबंधी माया, (२३) प्रनन्तानुबंधी लोभ, जो 'य' अर्थात् ईषत् बोड़े से भी प्रत्याख्यान को न होने दे, अर्थात् जिसके उदय से जीव थावक के व्रत भी धारण न कर सके उस चारित्र मोहनीय कर्म को प्रत्याख्यानवरण कहते है। उसके चार भेद हैं: - (२४) श्रप्रत्याख्यान क्रोध (२५) अप्रत्याख्यान मान, (१६) प्रत्याख्यान माया (२७ प्रप्रत्याख्यान लोभ । जिसके उदय से प्रत्याख्यान अर्थात् सर्वश्रा त्याग कर आवरण हो । महाव्रत नहीं हो सके उसे प्रत्याख्यानावर कषाय वेदनीय कहते हैं । उसके चार भेद हैं: (२८) प्रत्याख्यानावरण क्रोध, (२६) प्रत्याख्यानावरण मान (०) प्रत्याख्यानावरण माया (३१) प्रत्माख्यानावरण लोभ । (१) इसमें कोदों चावल का दृष्टांत दिया हैजैसे कि कोदों चावल यद्यपि मादक (नशा करने वाले) हैं। फिर भी यदि वे पानी से धो डाले जाम तो उनकी कुछ मादक शक्ति रह जाति है, और कुछ चली जाती है। इसी प्रकार जब मिथ्यात्व प्रकृति की शक्ति भी उपशम सम्यक्त्व रूप जल से घुलकर कुछ कम हो जाती है तब उसको ही सभ्य मिध्यात्व या मिश्र प्रकृति कहते हैं । जिसके उदय से संयम 'सं' एक रूप होकर 'ज्वलति' प्रकाश करे, अर्थात् जिसके उदय से कषाय अंश से मिला हुआ सयम रहे, कषाय रहित निर्मल यथाख्यात संयम न हो सके। उसे संज्वलन कषाय वेदनीय कहते हैं । यह कर्म यमाख्यात चारित्र को घातता है उसके चार भेद हैं- (३२) संज्वलन कोष, ( ३३ ) संज्वलन म.न. (३४) संज्वलन माया, (३५) संज्वलन लोभ । बो तो अर्थात् ईषत् घोड़ा कषाय हो, प्रबल नहीं हो उसे नोकषाय कहते हैं। उसका जो अनुभव करावे वह नोकषाय वेदनीय कर्म कहा जाता है। उसके नव भेद हैं :— (३६) हारय-जिसके उदय से हास्य प्रकट हो वह हास्य कर्म है । (३७) रति--जिसके उदय से देश, धन, पुत्रादि में विशेष प्रोति हो उसे रति कर्म कहते हैं ।

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