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(३८) अरति - जिसके उदय से देश प्रादि में अप्रीति १. गति नाम कर्म-जिसके उदय से यह जीव एक हो उसको परति कर्म कहते हैं ।
पर्याय से दूसरी पाय को 'गच्छति' प्राप्त हो वह मति (३६) शोक-जिसके उदय से इष्ट के वियोग होने नाम कर्म है । उसके चार भेद हैं :पर क्लेश हो वह शोक कम है।
(४९) नरक गति-जिस कम के उदय से यह जीव (४०) भय - जिसके उदय से उद्वेग (चित्त में घब- नारकी के भाकार हो उसको नरक गति नामक कर्म राहट) हो उसे भय कर्म कहते हैं।
कहते हैं। (४१) जुगुप्सा-जिसके उदय से ग्लानि अर्थात् (५०) सियंच गति-जिस कर्म के उदय से यह जीव अपने दोष को ढकना और दूसरे के दोष को प्रगट करना तिर्यंच के साकार हो उसको तिर्यच गति नाम कर्म हो वह जुगुप्सा कर्म है।
कहते हैं। (४२) स्त्री वेद-जिसके उदय से स्त्री सम्बन्धी भाव ५१) मनुष्य गति-जिस कर्म के उदय मे यह जीव (मृदु स्वभाव का होना, मायाचार की अधिकता, नेत्र
मनुष्य के शरीर प्राकार हो उसको मनुष्य गति नाम कर्म विभ्रम मादि द्वारा पुरुष के साथ रमने की इच्छा प्रादि) कहते हैं। हो उसको स्त्री-वेद कर्म कहते हैं।
(५२) वेबसि-जिस कर्म के उदय से यह जीव (४२) पुरुष-वेद- जिसके उदय में स्त्री में रमण
शरीर के भाकार हो उसको देवगति नाम कर्म कहते हैं। करने की इच्छा मावि परिणाम हो उसे पुरुष-बेद कर्म कहते हैं।
२.जाति नाम कर्म- जो उन गतियों में अव्यभिचारी
साहय धर्म से जीवों को इकट्ठा करे बह जाति नाम कर्म (४४) नपुसक देव-जिस कर्म के उदय से स्त्री तथा
है-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय प्रादि जीब समान स्वरूप होकर पुरुष इन दोनों में रमण करने की इच्छा प्रादि मिश्रित
मापस में एक दूसरे से मिलते नहीं यह तो अव्यभिचारी भाव हो उसको नपुसक वेद कर्म कहते हैं।
पना, और एकेन्द्रियपना सब एकेन्द्रियों में सरीखा है मह ५ प्रायु कर्म के चार भेदों का स्वरूप :
हृया सादृश्यपना, यह प्रव्यभिचारी धर्म एकेन्द्रियादि (४५) नरकायु-जो कर्म जीव को नारको शरीर में जीवों में रहता है, अतएव वे एकेन्द्रियादि जाति शब्द से रोक रक्खे उसे नरकायु कहते हैं ।
कहे जाते हैं। जाति नाम कर्म ५ प्रकार का है। जिसके (४६) तिर्यचायु-जो कर्म जोव को तिर्यच शरीर उदय से यह जीव एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिम चतुरिन्द्रिय, में रोक रक्खे उसे तिर्यंचायु कहते हैं ।
पंचेन्द्रिय कहा जाय उसे क्रम से(४७) मनुष्यायु-जो कर्म जीव को मनुष्य शरीर (५३) एकेन्द्रिय जाति, (५४) बेइन्द्रिय जाति, में रोक रक्खे उसे मनुष्यायु कहते हैं।
(५५) तेइन्द्रीय जाति, (५६) चौइन्द्रिय जाति, (५७) (४८) देवायु-जो कर्म जीत्र को देव की शरीर में पंचेन्द्रिय जाति नाम कर्म समझना रोक रवखे उसे देवायु कहते हैं ।
३. शरीर नाम कम जिसके उदय से शरीर बने उसे ६. नाम कर्म के मेद हैं-इनमें पिंड पौर अपिंड शरीर नाम कर्म कहते हैं। वह पांच प्रकार का है, जिसके प्रकृति की अपेक्षा ४२ भेद हैं। पिड प्रकृति १४ और उदय से प्रौदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, पाहारक अपिंड प्रकृति २८ हैं। पिड प्रकृति के उत्तर भेद६५ शरीर. तेजस शरीर और कागि शरीर (कर्म परमाणुगों होते हैं। इस प्रकार-६५+२ =६३ नाम कर्म के का समूहरूप) उत्पन्न हो उन्हें क्रम से-(५८) प्रौदारिक प्रकृति जानना।
शरीर नाम कम, (५६) वंऋियिक शरीर नाम कर्म,