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यादि जीवों की जाति में जन्म हो उसे श्रस नामकर्म कहते है ।
(१२१) स्थावर नामकर्म जिसके उदय से एकेन्द्रिय में (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पतिकाय में) जन्म हो उसे स्थावर नामकर्म कहते हैं ।
( ७२८
(२२) यावर नामकर्म जिसके उदय से ऐसा शरीर हो जोकि दूसरे को रोके और दूसरे से आप रुकूँ उसे बादर नामकर्म कहते हैं ।
(१२३) सूक्ष्म नामकर्म -जिसके उदय से ऐसा सूक्ष्म शरीर हो जो कि न तो किसी को रोके और न किसी से रुके उसे सूक्ष्म नामकर्म कहते हैं ।
( १२४) पर्याप्त नामकर्म-जिसके उदय से जीव अपने-अपने योग्य ब्राहारादि ( बाहार शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा, मन ये ६) पर्याप्तियों को पूर्ण करे वह पर्याप्त नामकर्म है ।
(१२५) अपर्याप्त नामकर्म-जिसके उदय से कोई भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं हो अर्थात् लब्ध्य पर्यातक अवस्था हो उसको पर्याति नामकर्म कहते हैं ।
(१२६) प्रत्येक शरीर नामकर्म-जिसके उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी हो उसे प्रत्येक शरीर नामकर्म कहते हैं ।
(२२७) साधारण शरीर नामकर्म जिस कर्म के उदम से एक शरीर के अनेक स्वामी हों उसको साधारण नामकर्म कहते हैं ।
(१) रसात ततो मांसं
मांसम्भेदः प्रवर्तते ।
मेदोस्थि ततोस्थि ततो
मज्जै मज्जा कस्ततः प्रजाः ॥ १ ॥ अर्थात् अन से रस, रस से लोही, लोही से मांस, मांस से मेद, मैद से हाड, हाड से मज्जा मज्जा से बीयं, वीर्य से संतान होती है इस तरह सात धातु हैं सात धातु ३० दिन में पूर्ण होती हैं ।
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(१२८) स्थिर नामकर्म-जिसके उदय से शरीर के रसादिक' धातु और वातादि उपधातु घने अपने ठिकाने ( स्थिर) रहें उसकी स्थिर नामकर्म कहते हैं. इससे ही शरीर निरोगी रहता है।
धातु
(१२६ अस्थिर नामकर्म-जिसके उदय से और उपधातु अपने अपने ठिकाने न रहें अर्थात् चलायमान होकर शरीर को रोगी बनायें उसको प्रस्थिर नामकर्म कहते हैं |
(१३०) शुभ नामकर्म-जिस कर्म के उदय से मस्तक वगैरह शरीर के अवयव और शरीर सुन्दर हो उसे शुभ नामकर्म कहते हैं ।
( १३१) अशुभ नामकर्म जिस कर्म के उदय से शरीर के मस्तकादि अवयव सुन्दर न हों उसको भशुभ नामकर्म कहते हैं ।
( १३२) सुभग नामकर्म - जिस कर्म के उदय में दूसरे जीवों को अच्छा लगने वाला शरीर हो उसको सुभग नामकर्म कहते हैं ।
(१३३) दुभंग नामकर्म जिस कर्म के उदय से रूपादिक गुण सहित होने पर भी दूसरे जीवों को अच्छा न लगे उसको दुभंग नामकर्म कहते हैं ।
(१३४) सुस्वर नामकर्म-जिसके उदय से स्वर (आवाज) अच्छा हो उसे सुस्वर नामकर्म कहते 1
(१३५) बु. स्वर नामकर्म-जिसके उदय मे प्रच्क्ष स्वर न हो उसको दुःस्वर नामकर्म कहते हैं । (२) बात: पित्तं तथा श्लेष्मा
शिरास्नायुश्च चर्म च ।
जठराग्निरिति प्राज्ञ:
प्रोक्ताः सप्तोपधातवः ||२|| श्रर्थात् वात, पित्त, कफ, सिरा, स्नायु, चाम, जठराग्नि (पेट की भाग) ये सात उपधातु हैं ।