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चौबीस - दण्डक (दौलतराम कृत)
दोहा
वन्दों वीर सुधीरकों, महावीर गंभीर । वर्धमान सम्मति महा, देव देव श्रति वीर ॥१॥ गत्यागत्य प्रकाश के, गत्यागत्य व्यतीत । अदभुत प्रतिगति सुगति जो, जैनसूर जगदीश ||२| जाकी भक्ति बिना विफल, गये अनन्ते काल । गणित गत्यागति घरी, कटी न जग-जंजाल ||३|| चौबीसों दण्डक विषं धरी अनन्ती देह | नाही लखियो ज्ञान घन, शुद्ध स्वरूप विदेह ॥४॥ जिनवाणी परसदतें, नहिये श्रातमज्ञान । दहिये त्यागति सर्वे गहिये पद निर्वाणा ॥ ५ ॥ चौबीसों दण्डकतनी, गत्यागति सुन लेव । सुनकर विरक्त भाव धरि, चहुँ गति पानी देव ||६||
छन्द - चौपाई
पहिलो दण्डक नारक लनों, भवनपती दस दण्डक भनी ।
ज्योतिष व्यन्तर सुरगति दास,
धावर पंच महादुख रास ||७||
विकलत्रय प्ररु नर तिर्यंच,
पंचेद्रिय धारक परपंच |
चौबीसों दण्डक कहे, अब सुन इनमें भेद जु लहे ||८||
नारक की गति प्रागति वोय,
नर तियंच पंचेन्द्रिय होय ।
जाय प्रसेनी पहिला लगे, मन बिन हिंसा करम न पर्गे ॥६॥
सर्प दूजे लग जाहि
तीजे लग पक्षी शक नाहि । सर्प जाय चौध लग मही, नाहर पंचम आगे नहीं ||१०||
नारी लग ही जाय, नर अरु मच्छ सातवे थाय
ये तो नरकतनी गति जान, अब प्रगति भाषी भगवान् ||११ ॥
नरक सातवें को जो जीव, पशुगति ही पावे दुख दीव |
और नारकी षष्ठ सदीव,
दो गति पावें नर पशु जीव ॥ २॥
पट्टे को निकसो जु कदाप सम्यक्त्वा होवे निष्पाप । पंवम को निकसो मुनि होय, चौथे को कवलिह जोय ॥१३॥
तृतीय नरक को निकलो जीव, तीर्थंकर है है जग पीत्र |
ये नारक की गत्यागत्य, भाषी जिनवाणी में सत्य ॥ ११४ ॥
तेरह दण्ड देव निकाय,
तिने भेद सुनो मन नाम ।
नर तिसच पंचेन्द्रिय बिना, औरन के सुरपद नहि गिना ||१५||
देव मरे गति पंच लहाय,
भू, जल, तरुवर, नर, पशु थाय । दुजे सुरंग ऊपरले देव, थावर है न कहें जिन देव ॥ ६ ॥
बहस्रार तें ऊंचे सुरा,
मरकर होवें निश्चय मरा ।
नर पशु भोगभूमि के दोय,
दुजे सुरंग परे नहि होय ॥ १.७ ॥
जाय नहीं यह निश्चय कहो, देवनि भोगभूमि नहि नहीं । करम भूमिया नर अरु डोर,
इन बिन भोगभूमि नहिं और