Book Title: Champu Jivandhar
Author(s): Harichandra Mahakavi, Kuppuswami Shastri
Publisher: Shri Krishna Vilasa Press Tanjore
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जीवंधरचम्पुकाध्ये
तं दृष्ट्वा देवतावाक्यं प्रमाणं निश्चिकाय सा ।।
संवादेन हि सर्वेषां प्रामाण्यमवगम्यते ॥९१ ॥ ततो महीकान्तकान्ता, निजान्तरङ्गरविकान्तजाज्वल्यमानप्रियविप्रयोगशोकानलकीलाकलापं तनयसुन्दरवदनचन्दिरालोकेन शमयिध्यन्ती, सरोजलोद्धृतशफरीव विना शिशुना स्थातुं क्षणमपारयन्त्यपि देवतावचनजनितविस्त्रम्भभावेन गत्यन्तराभावेन च गन्धोत्कटश्रेष्ठिसमर्पणाय कथं कथमप्यनुमतिमापाद्यमाना, स्वभावत एव समु. द्रमपि निर्निद्राणतेजसां पुत्रं पित्रीयमुद्रया समुद्र विधाय, विधाय । पुरतो, देवतया सह सहसान्तरधात् । पितृवनवनमध्ये बालसूर्यप्रकाशं
सुतमतिवितताभ्यां लोचनाभ्यां पिबन्सः । तृषित इव सरोऽम्भश्चातको यद्वदभ्र. . प्रमृतनलकणालिं नातृपद्वैश्यनाथः ॥ ९२ ।।
अयं च, एघोऽन्वेषिजन इव महानिधि महीशसुतमासाद्य, सद्य एवाङ्कुरितपुलकापदेशेन हृदयालवालसंजातमञ्जुलमोदलताकोरकानिव बिभ्राणः, प्रीतेः परां कोटिमात्मजं चादधानः, तदङ्गस्पर्शसुखपारवश्येन प्रमदजलनिधिमन्न इव, हृदयान्तरे मलयजरसलिप्त इव, हिमवालुकादीर्घिकानिमज्जन्मूर्तिरिव, मोहाक्रान्त इव, निद्राण इव, मत इव, परिमूढेन्द्रियगण इव, निमीलितचैतन्य इव, आनन्दपरंपरायाः परां काष्ठामातिष्ठमानो, जीवेत्याद्याशीर्वचनमाकर्ण्य, तमनङ्गरूपधेयं महाभागधेयमङ्गजं तन्नामधेयेनालंचकार ।
ततः स्वकीयावसथं समेत्य वणिक्पतिः कुद्ध इवाबभाषे । जीवन्तमप्यात्मजमद्य मत्ते विना परीक्षां मृतकं किमात्थ ।।९३।।
यहा संभ्रान्तचित्तानां वनितानां स्वभावतः ।
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