Book Title: Champu Jivandhar
Author(s): Harichandra Mahakavi, Kuppuswami Shastri
Publisher: Shri Krishna Vilasa Press Tanjore
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६४
जीबंधरचम्पुकाव्ये प्राप्यार्धराज्यं कुरुवंशकेतुः कन्दर्पसाम्राज्यरमां च पद्माम् । प्रमोदकल्लोलपरंपराणामाघ्रातहृष्यहृदयाम्बुनोऽभूत् ॥ ४६ ॥ इति महाकविहरिचन्द्रविरचिते श्रीमति चम्पुनीवंधरे
पद्मालम्भो नाम पञ्चमो लम्बः ।
. षष्ठो लम्बः । पद्मां पयोधरभरानतगालवल्ली __ पद्माननां कुरुवरो रमयंश्चिराय । तद्भातृभिगुणमणीकुलरोहणैस्तै
त्रिंशता प्रतिदिनं परिपूज्यते स्म ॥ १ ॥ कदाचित्कुरुवीरस्य सकलभूतसंतापनाशनं निखिललोकदेदीप्यमानं भुजप्रतापमाभिवीक्ष्य लन्जयेव संहृतनिजप्रतापे, स्वराभिसारनिरोधननितक्रोधानां बन्धकीनामारक्तकटाक्षच्छटाभिरिव संहृतनिजकरे समानी तपद्मिनीहृदयानुरागपरंपराभिरिव कुङ्कुमसच्छायमण्डले दिनकरे चरमशिखरिशेखरकनककलशशङ्काकरे, सायन्तनसुगन्धिशीतलमन्दपवनलोलिसललितलताङ्गुलितयाह्वयद्च इव वनविटपिभ्यो व्याकुलारावव्याजेन प्रत्युतरमभिधाय धावनव्यासङ्गेषु विहङ्गेषु, सहस्त्रपत्रेषु सह स्वकरकिरणान्क्रमेण निमीलदकैकदलंगणयत्स्विव मुकुलीभवत्सु, सिन्दूरच्छविबन्धुरे संध्यारागे वरुणदिशि विजृम्भिते, आविर्भवत्तिमिरनिकरबीजेप्विव बम्भरेषु पद्माकरं विहाय कुमुदाकरमाक्रमत्सु, ध्वान्तकदम्बमुद नृम्भत ।
लोकदीपे रवी लोकगृहमाभास्य निवृते । तत्कजलमिवानीलं तमोबृन्दमनायत ॥ २ ॥ संदष्टं बिसमुत्सृज्य चक्रहन्टेन मूर्च्छता ।
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