Book Title: Champu Jivandhar
Author(s): Harichandra Mahakavi, Kuppuswami Shastri
Publisher: Shri Krishna Vilasa Press Tanjore

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Page 43
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवधरचम्पुकाव्ये इह खलु कुमारोऽयं विद्याधरैः स्वबलात जयगिरिरिति ख्याते मत्तहिपे विनिविष्टवान् । प्रतिभटघटाटोपं भिन्दन्नुदारपराक्रमो दिशि दिशि सपत्नांस्तांस्तांल्लीनांश्चकार निकारतः ॥३७ रत्नस्तम्भविजृम्भितामलरुचा व्याप्ताखिलाशान्तरा. मेकत्रोदितकोटिसूर्यपटलीसंदीप्तिशङ्कावहाम् । शालां तत्र च पद्मरागखचितां वेदी व्यधात्तत्क्षणं सर्वेषां हृदयस्थरागलहरी मामिवासौ वणिक् ॥ ३८ ॥ तदनन्तरं विद्याधराधिपतिर्गरुडवेगनामा समागत्य वधूवरस्य सुरदम्पतीसन्निभस्य स्फटिकमणिपट्टके विनिवेशितस्य करनखरकान्तिद्विगुणितधावल्याभिर्भुजवंशविगलन्मुक्ताझरीसंभावनासंपादिकाभिर्वा - हुभुजगफणामाणिक्यायितमणिमयकुम्भविगलत्पयोधराभिरभिषेकमङ्गलं निवर्तयामास । क्षीराब्धिडिण्डीरचयायमानं श्लक्षणं दुकूलं वसनं वसानौ । तौ प्राङ्मुखं भूषणगेहमध्ये निवेशितौ वज्रविकीर्णपट्टे ॥ ३९ ॥ अनयोः कान्तवपुषि भूषणानां च भूषणे । आकल्पकल्पना नूनं मङ्गलैकफला भवेत् ॥ ४० ॥ यद्वा भूषणबृन्दस्य शोभासंपादकाङ्गके । तयोर्नैपथ्यक्लप्तिस्तु दृष्टिदोषस्य हानये ॥ ४१ ॥ सीमन्तं परिकल्प्य खञ्जनदृशो वक्रप्रभानिनगा___ मार्गाभं सुममालिकां च विदधे तत्फेनपुञ्जायिताम् । आस्ये नीलललाटिकां सहचरीववेन्दुलक्ष्म्यायिता मक्षणोरञ्जनमाननाक्रमकतोः सीमन्तरेखामिव ॥ ४२ ॥ सैरन्ध्रीजनकरकल्पिता तस्याः कपोलतलमकरी, मकरकेतोः For Private And Personal Use Only

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