Book Title: Champu Jivandhar
Author(s): Harichandra Mahakavi, Kuppuswami Shastri
Publisher: Shri Krishna Vilasa Press Tanjore

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयो लम्यः । मृगाधिपा यत्र गजभ्रमेण घनावलि गर्ननसंभ्रमेण | उत्पत्य वेगान्नखरप्रहारैर्विदार्य कोपेन समुत्सृजन्ति ॥ १० ॥ यश्च किल, क्वचित्खगाङ्गनासङ्घदुकूलभ्रमनिषेवितसितजीमूतपरिवृतः, वचन हरिन्मणिमयतटनिःमृतविभाविभाविततिग्मरुचिबिम्बे गगनसरसि सरोजिनीहरितपलाशशङ्कां तटचरनभश्चराणामुपज. नयन्, कुत्रचिन्महीरुहपरंपरासु कादम्बिनीशङ्कया कलधौततलस्फुटनटनपटुबर्हिप्रतिबिम्बकपटेन स्थलसमुत्फुल्लनीलाब्जमालासंदेह दधानः, वचन सरसि समुद्भूतसारसराजहंसकूजितै ताविलसितान्तमक. रन्दपानमत्तेन्दिन्दिरमनोहरझंकारैरुपवनतलालङ्कारसहकारप्रवालचर्वण गर्वितकलकण्ठकण्ठरवैश्च हृदिशयं निर्निद्राणं कुर्वाणः, कुत्रचन मञ्जुलवझुलनिकुअविहरमाणखगकञ्जनयनाजनरत्यन्तश्रमहारिसमीरकि शोरमनोरमः समदृश्यत । दुर्वर्णभूधरे तत्र सर्व स्वागतिकारणम् ।। अभाणीखेचरः सोऽयं स्पष्टमेव वणिक्पतेः ॥ ११ ॥ श्रेण्यां धरस्यास्य हि दक्षिणस्यां गान्धारदेशस्य ललामभूता । पुरी निरालम्बतयान्तरिक्षाच्च्युता सुराणां नगरीव भाति ॥१२॥ यामन्वर्थाभिधेयेन नित्यालोकति खेचराः । वदन्ति नीरदा यस्या गवाक्षद्वारचारिणः ।। १३ ॥ यत्सालमाला स्फुरदंशुजाला पयोधरप्रोल्लसदम्बरश्रीः । वक्षःस्थलीव प्रमदाजनानां मनो जरीहर्ति च निर्जराणाम् ।।१४।। यद्गोपुराग्रसुत्राममणिपुत्रिविराजिते । धृतसूक्ष्मदुकूलेव शारदाम्बुजमालया ॥ १५ ॥ गरुडवेग इति क्षितिपालकः सकलखेचरसेवितवैभवः । इह पुरीमनुशास्ति यथा दिवं सुरपतिः कमनीययशोधनः ॥१६॥ For Private And Personal Use Only

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