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जब मास पक्षादि मानते हैं, मगर जैनशास्त्रतो मौजूदही हैं. इसलिये पर्युषणादि धार्मिक कार्य जैनसिद्धांत मुजब करनेमें आते हैं । और जैनशास्त्र मुजबही सब गच्छवाले अधिक महीनेकों कालचुला कहते हैं । किंतु कितनेक प्रथम महीनेको कालचूला कहते हैं, मगर प्रवचनसारोद्धार, सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति, चंद्रप्रज्ञप्तिवृत्ति, लोकप्रकाश, ज्योतिष्करंडपयन्नवृत्ति वगैरह शास्त्रप्रमाणोंसे दूसरा अधिक महीना कालचूला ठहरता है - देखिये - " सठ्ठीए अ ईयाए, हवई हु अहिमासो जुगर्द्धमि । बावीसे पव्वसए, हवइ हु बीओ जुगंतंमि ॥ १ ॥ इत्यादि सूर्य प्रज्ञप्तिवृत्ति के अनुसार ६० पर्व ( पक्ष ) के ३० महीने व्यतीत होनेपर ३१ वा महीना दूसरा पौष अधिक होता है, और १२२ पक्षके ६१ महीनें जानेपर कालचूलारूप दूसरा आषाढ अधिक होता है. उसी कालचूलारूप दूसरे अधिक आषाढमेही चौमासी प्रतिक्रमणादि धार्मिककार्य सब गच्छवालोके करने में आते हैं । और अधिक पौष व अधिक आषाढके दिनोंकी गिनती सहित, ६२ महीने, १२४ पक्ष, १८३० दिन और ५४९०० मुहूतों के पांच वर्षोंका एक युग कहा है । इसलिये कालचूलारूप अधिक महीने के ३० दिन गिनती में नहीं आते १, तथा कालचूलारूप अधिक महीने में चौमासी प्रतिक्रमणादि धार्मिक कार्य नहीं हो सकते २, और प्रथम महीनेको कालचूलाकहना ३, यह सब बातें शास्त्रविरुद्ध हैं। इसको विशेष पाठकगण स्वयंविचार लेवेंगे ।
५- पूर्वापर विसंवादी ( विरोधी ) कथन ॥
जिस अधिक महीने को कालचूला कहकर गिनती मे लेनेका व पर्युषणादि धर्मकार्य करनेका निषेध करते है, उसी कालचूलारूप दूसरे अधिक आषाढको गिनती में लेकर चौमासीप्रतिक्रमणादि कार्य आप करते हैं. जिसपर भी मुहसे कालचूलारूप अधिक महीनेको गिनती में नहीं लेना व उसमें धर्म कार्य नहीं करने कहते हैं और कालचूलारूप अधिक महीनेको गिनकर धर्मकार्य करने वालोंको दोष बतुलाते हैं। एक जगह कालचूलारूप अधिक महीना गिनती में छोडते हैं । दूसरी जगह उसीकोही आप गिनती में लेकर अंगीकार करते हैं और दूसरे गिनने वालोंकों दोष बतलाते हैं यह तो " मम वदने जिव्हा नास्ति की तरह कैसा पूर्वापर विसंवादी ( विरोधी ) कुथन है, सो भी विचारने योग्य हैं ।
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