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मुहूर्त्त के लोकोत्तर धर्मकार्य तो नियमित दिवस से आगे पीछे कभी नहीं हो सकते. इसलिये लौकिक वालेभी मुहूर्त्त वाले कार्य नहीं करते, मगर बिना मुहूर्त्तके दान पुण्य परोपकारादि तो विशेष रूपसे करनेके लिये अधिकमहीनेको 'पुरुषोत्तम अधिक मास कहते हैं, उसकी कथाभी सुनते हैं और सिंहस्थ में नाशिकादि तीथों में यात्राका मेला भी भरते हैं । इसी प्रकार वर्तमानिक जैन समाजमेभी मुहूर्त्त वाले कार्य अधिक महीने में नहीं करते. मगर बिना मुहूर्त्तके पर्यु णादि धार्मिक कार्य करने में कोई हरजा नहीं है। अधिक महीने के ३० दिनोंको मुहूर्त्तादि कार्यों में नहीं लेते, परंतु बिना मुहूर्त्तके (दिव सौकी संख्यासे प्रतिबद्ध ) धार्मिक कार्योंमें लेते हैं । बस ! इसका मर्म सरल दिलसे न्यायपूर्वक समझ लिया जावे तो अधिकमहीने में पर्युषणादि धर्म कार्य नहीं हो सकते. ऐसा एकांत आग्रहका झूठा हेम आपसेही निकल सकता है. इसका विशेष निर्णय इसको बांचने वाले सज्जन स्वयंकर सकेंगे ।
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२- बे समझ या हठाग्रह ॥
अधिक महिनेके अभाव में ५० दिने भाद्रपद में पर्युषणा करना लिखा है । ५० दिनके अंदर करनेवाले आराधक होते हैं उपरांत करनेवाले विराधक होते हैं. इसलिये ५० वै दिनकी रात्रिको किसीप्रकारभी उल्लंघन करना नहीं कल्पता है. यह बात जैन समाज में प्रसिद्ध ही है । जिसपर भी सिर्फ भाद्रपद शब्दमात्रको पकडकर वर्तमानिक दो श्रावण होनेपर भी भाद्रपद में पर्युषणा करनेका आग्रह करते हैं, मगर ८० दिन होनेसे शास्त्रविरुद्ध होता है, इसका विचार करते नहीं हैं।
और पर्युषणा के पिछाडी हमेशा ७० दिन रखनेका एकांत आग्रह करते हैं, मगर ७० दिनका नियम अधिक महिनेके अभावसंबंधी है और अधिक महिना होवे तब निशीथ चूर्णि, बृहत्कल्पम्बूर्णि, स्थानांगसूत्रवृत्ति और कल्पसूत्रकी टीकाओंम १०० दिन रहनेका कहा है । इसलिये ७० दिन या १०० दिन यथा अवसर दोन बातें मान्य करने योग्य हैं। जिसपर भी १०० दिन संबंधी शास्त्र. प्रमाणोंको छोड़कर सिर्फ ७० दिनके शब्द मात्रको आगेकरके १०० की जगहभी ७० दिन रहनेका आग्रहकरते हैं. इसलिये उपरकी दोनो ब... संबंधी शास्त्रीय अपेक्षाकी वे समझ है, या समझने परभी
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