Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Vamdev Acharya, Ramechandra Bijnaur
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 15
________________ आचार्य देवसेन ने ब्रह्म मत को विपरीत मिथ्यात्व बतलाया है। इसी कारण वामदेव ने विपरीत मिथ्यात्व नाम से विभाजन न कर प्रारम्भ में वेदान्त का उल्लेख किया है । एकान्तवाद का उदाहरण क्षणिकवाद है, अत: अन्य उदाहरणों को न लेकर वामदेव ने केवल मणिकत्व को लिया है, यद्यपि सदैकान्त, असदैकान्त, भावकान्त, अभावकान्त, अवाच्यतैकान्त, दैवेकान्त, पुरुषार्थकान्त ज्ञानकान्त, अज्ञानैकान्त इत्यादि अनेक भेदरूप एकान्तवाद होता है । संभवत: शून्यवाद को वामदेव ने संशयवाद का उदाहरण मानकर उसका पृथक् ग्रहण किया है । --- जो लोग जलस्नान से आत्मा की शुद्धि मानते हैं, मांसभक्षण से पितृवर्ग की तृप्ति मानते हैं, पशुओं का वध करने वा पशुओं का होम करने से स्वर्ग की प्राप्ति मानते हैं और गाय की योनि का स्पर्श करने से धर्म की प्राप्ति मानते हैं, इन सबमें धर्म की विपरीतता किस प्रकार है, यह भावसंग्रह में दि वलाया गया है। पद्यनन्दि पञ्चविंशतिका में कहा गया है कि आत्मा तो स्वभाव मे अत्यन्त पवित्र है। इसलिये उस उत्कृष्ट प्रात्मा के विषय में स्नान व्यर्थ ही है तथा शरीर स्वभाव से अपवित्र ही है इसलिये वह कभी भी उस स्नान के द्वारा पवित्र नहीं हो सकता है । इस प्रकार स्नान की व्यर्थथा दोनों ही प्रकार से सिद्ध होती है । फिर भी जो लोग उस स्नान को करते हैं, वह उनके लिए करोड़ो पृथिवीकायिक, जलकायिक एवं अन्य जीवों की हिंसा का कारण होने से पाप और राग का ही कारण होता है । संसार में वह कोई तीर्थ नहीं है, वह कोई जल नहीं है तथा अन्य भी कोई वस्तु नहीं है, जिसके द्वारा पूर्ण रूप से अपवित्र यह मनुष्य का शरीर प्रत्यक्ष में शुद्ध हो सके। प्राधि (मानसिक कष्ट), व्याधि (शारीरिक कष्ट), बुढ़ापा और मरण आदि से व्याप्त यह शरीर निरन्तर इतना सन्ताप कारक है कि सज्जनों को उसका नाम लेना भी असह्य प्रतीत होता है । यदि इस शरीर को प्रतिदिन समस्त तीर्थो के जल से भी स्नान कराया जाय तो भी वह शुद्ध नहीं हो सकता है, यदि उसका कपूर व कुकुम आदि उबटनों के द्वारा निरन्तर लेपन भी किया जाय तो भी वह दुर्गन्ध को धारण करता है तथा यदि इसकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा भी की जाय तो भी वह क्षय के मार्ग में ही प्रस्थान करने वाला अर्थात् नष्ट होने वाला है । इस प्रकार जो शरीर सब प्रकार से दुःख देने वाला है, उससे अधिक प्राणियों को और दूसरा १. "विपरीतो भवति पुन: ब्राह्मः"-देवसेनाचार्य : भावसंग्रह-१६ २. पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका २५/२

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