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पुरोवाक्
भाव संग्रह दो शब्दों से मिलकर बना है-भाव और संग्रह । भाव शब्द का श्रर्थ परिणाम है । जीवों के भिन्न-भिन्न परिणामों का संग्रह चौदह गुणस्थानों में हो जाता है। इस ग्रन्थ में चूँकि गुणस्थानों के वर्गीकरण के श्राधार पर वर्णन किया गया है, अतः इसका भावसंग्रह नाम सार्थक है । शुभ भावों का आश्रय लेने से पुण्य और अशुभ भावों का ग्राश्रय लेने से पाप होता है । शुभाशुभ भावों का जब परित्याग हो जाता है तो निर्विकल्पयने की स्थिति हो जाती है । इस स्थिति में ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय का विकल्प नहीं रहता है । संसार में स्थित जीवों के शुभ और अशुभ गतियों को प्रदान करने वाले ये पांच भाव हैं - १. औशमिक, २. क्षायिक, ३. मिश्र, ४. औदयिक और ५. पारिणामिक |
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उपशम- नीचे स्थित कीचड़ के समान अनुद्भूतस्ववीर्य की वृत्ति से कर्मों का उपशमन होना प्रौपशमिक भाव है । जैसे - कतकफल या निर्मली के डालने से मैले पानी का मैल नीचे बैठ जाता है और जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार परिणामों की विशुद्धि से कर्मों की शक्ति का अनुद्भूत रहना उपशम है ।
क्षय-कर्मों की अत्यन्त निवृत्ति को क्षय कहते हैं । जैसे जिस जल क ' मैल नीचे बैठा हो, उसे यदि दूसरे पवित्र पात्र में रख दिया जाये तो उसमें अत्यन्त निर्मलता आ जाती है, उसी प्रकार आत्मा से कर्मों कीं अत्यन्त निवृत्ति होने से जो आत्यन्तिक विशुद्धि होती है, वह क्षय कहलाता है ।
मिश्र क्षीणाक्षीण मदशक्ति वाले कोदों के समान उभयात्मक परिणाम को मिश्रभाव कहते हैं । जैसे जल से प्रक्षालन करने पर कुछ कोदों की मदशक्ति क्षीण हो जाती है और कुछ की प्रक्षीण । उसी प्रकार यथोक्त क्षय के कारणों के सन्निधान होने पर (परिणामों की निर्मलता से) कर्मों के एकदेश का क्षय और एकदेश कर्मों की शक्ति का उपशम होने पर उभयात्मक मिश्र भाव होता है ।