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भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि
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देवियों द्वारा इस तिर्छालोक के असंख्य द्वीप और समद्रों तक के स्थल को आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है अर्थात् चमर इतने रूपों की विकुर्वणा कर सकता है कि असंख्य द्वीप समुद्रों तक के स्थल को भर सकता है । हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की ऐसी शक्ति है-विषय है-विषयमात्र है, परन्तु चमरेन्द्र ने ऐसा किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं।
विवेचन-दूसरे शतक में अस्तिकायों का कथन सामान्य रूप से किया गया था । अब इस तीसरे शतक में अस्तिकायों का विशेषरूप से कथन करने के लिए जीवास्तिकाय के विविध धर्मों का कथन किया जाता है । इस प्रकार दूसरे और तीसरे शतक का संकलनरूप संबंध है।
तीसरे शतक में दस उद्देशक हैं। उन दस उद्देशकों में किन किन विषयों का वर्णन किया गया है ? इम बात को सूचित करने के लिए संग्रह गाथा कही गई है अर्थात् संग्रह गाथा में दस उद्देशकों की विषय सूची दी गई है । पहले उद्देशक में चमरेन्द्र की विकुर्वणा शक्ति, दूसरे में चमरेन्द्र का उत्पात, तीसरे में कायिकी आदि क्रिया, चौथे में देव द्वारा विकुर्वित यान को क्या साधु जानता है, इत्यादि का निर्णय । पाँचवें में क्या साधु बाहर के पुद्गलों को लेकर स्त्री आदि के रूपों की विकुर्वणा कर सकता हैं, इत्यादि अर्थ का.. निर्णय । छठे में जिस साधु ने वाराणसी (बनारस) में समुद्घात किया है क्या वह राजगृह नगर में रहे हुए रूपों को जानता है, इत्यादि का निर्णय । सातवें में लोकपालों के स्वरूपादि का कथन । आठवें में असुरकुमारादि देवों पर कितने देव अधिपतिपना करते, इत्यादि वर्णन । नववें में इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी वर्णन और दसवें में चमरेन्द्र की परिषद् (सभा) संबंधी वर्णन है।
चमरेन्द्र कितनी मोटी ऋद्धिवाला है, इस बात को बतलाने के लिए कहा गया है कि-चौतीस लाख भवनावास, चौसठ हजार सामानिक देव, और तेतीस त्रायस्त्रिशक देवों
पर सत्ताधीशपना करता हुआ चमरेन्द्र यावत् विचरता है । यहाँ मूलपाठ में 'जाव' शब्द • दिया है जिससे इतने पाठ का ग्रहण करना चाहिए -
"चउण्हं लोगपालाणं, पंचण्हं अग्गमहिसीणं सदपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्डं चउसठ्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसि च
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