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कुछ कालके बाद फिर भी उसी नगरमै उन सब साधुओका माना हो गया। उस समय वहाँके राजाने शिवभूतिको एक रनकम्बल दिया। उसे देखकर साधुओंने शिवभूतिसे यह कह कर कि-साधुमाको रत, कमल लेना पचित नहीं है छीन लिया। और उसके टुकड़े करके .. रजो हरणादिके काममें लाने लगे। माधुओंके ऐसे पावसे शिवभूविको बहुत दुःख पहुंचा।
किसी समय उस संघके भाचार्य जिनकल साधुनोंकास्वरूप कह रहे पेव शिवभूचिने यह जाननेकी इच्छाकी कि-जब जिनकल निषरिग्रह होता है तो आपलोगोंने यह आडम्बर किस लिय स्वीकार किया वास्तविक मार्ग क्यों नहीं अङ्गीकार करते हैं । इसके बारमें गुरु महाराजने कहा कि इस विषम कलिकामें जिनकल्प कठिन होनेसे धारण नहीं किया जा सकता । जन्यूखामोके मोम जाने वाद जिनकल्प नाम शेष रह गया है। शिवमूतिने सुनकर उचरमें कहा कि देखिये तो मैं इसे ही धारण करके बताताई। इसके बाद गुरुने मी उसे बहुत समझाया परन्तु शिवभूतिने एक न सुनी और जिनकल्प धारण करही तो लिया।" यही श्वेवांवरियोंके शास्त्रों में दिगम्बरियोंकी उत्पाधिका हेतु है। इसकी समीक्षा नोहम मागे चलकर करेंगे अब जरा दिगम्बरोंका भी कथन सुन लीजिये--
वामदेव (जो बि. की दशमी शताब्दिमें हुये हैं। उन्होंने भावमहमें लिखा है कि. भाव यह है--विक्रमराजाकी मृत्युके १३६ वर्ष बाद जिनचनके द्वारा श्वेताम्बर मतका संसारमें समाविर्भाव हुमा । कारण यह है कि उन्नायिनीमें श्रीमद्रबाहु मुनिराजका संघ आया । भद्रबाहु मुनि मटा निमित्त (ज्योतिषशाब)के बड़े भारी विद्वान थे । निमित्र मानसे जानकर उन्होंने सब मुनियोंसे कहा कि देखो! यहाँ बारह वर्षकाघोर दुभिक्ष पड़ेगा। सब साधु लोग उनके वचनो परसद विश्वासकर अपनेर गणके साथ दूसरे देश की ओर चले गये।क्योंकि भुनानीके वचन कमी . अलीक नहीं हो सकते । वैसा हुआ भी। सो एक दिन शान्याचार्य विहार करते हुये बसमीपुरीमें पले आये और वहीं पर रहने छो।