Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
२५
लावासे इष्ट देवके नमस्कार में उद्यत बतलाया गया है । इसके अतिरिक्त ' निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वाणो (नमस्कुर्वन् ) 'इतना वाक्यांश तो तीनों में ही शद्वशः समान है।
उक्त तीनों टीकाओंके अन्तमें जो पद्य पाये जाते हैं वे इस प्रकार हैं
येनात्मा बहिरन्तरुत्तमभिदा त्रेधा विवृत्योदितो मोक्षोऽनन्तचतुष्टयामलवपुः सद्ध्यानतः कीर्तितः । जीयात् सोऽत्र जिनः समस्तविषयः श्रीपूज्यपादोऽमलो भव्यानन्दकरः समाधिशतक श्रीमत्प्रभेन्दुः प्रभुः । समाधि. येनाज्ञानतमो विनाश्य निखिलं भव्यात्मचेतोगतं सम्यग्ज्ञानमहांशुभिः प्रकटितः सग्गारमार्गोऽखिलः । स श्रीरत्नकरण्डकामलरविः संसृत्सरिच्छोषको जीयादेष समन्तभद्रमुनिपः श्रीमान् प्रभेन्दुर्जिनः ॥ रत्नकरण्ड मोक्षोपायमनत्यपुण्य ममलज्ञानोदयं निर्मलं
भव्यार्थं परमं प्रभेन्दुकृतिना व्यक्तैः प्रसन्नः पदैः । व्याख्यानं[तं] वरमात्मशासनमिदं व्यामोहविच्छेदतः सूक्तार्थेषु कृतादरैरहरहरचेतस्यलं चिन्त्यताम् ॥ आत्मानुशासन
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इन तीनों पद्योंमें टीकाकार श्री प्रभाचन्द्र प्रभेन्दु' पद अपना नामनिर्देश किया है । तीनोंका ही छन्द शार्दूलविक्रीडित है ।
टीकाकारका समय
इस प्रकार उक्त तीनों टीकाओंके इस स्वाभाविक सादृश्यको देखते हुए वे तीनों टीकायें एक ही व्यक्तिके द्वारा रची गई हैं, इसमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं रहता । अब, उनके रचयिता कौन-से प्रभाचन्द्र हैं और वे कब हुए हैं, इसका निर्णय करने के लिये जब हम उन टीकाओंका अन्तःपरीक्षण करते हैं तो हमें वहां सोमदेव सूरि द्वारा विरचित यशस्तिलकके अनेक पद्य देखनेको मिलते हैं । जैसे