Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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(३६) समता - जीवन, भरण, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख में सम भाव रखना। (३७) ध्यान - समाधि में मुख्य है मन की एकाग्रता, आत्मा का चिन्तन करना।
(३८) लेश्या - कषायों से अनुरंजित मन, वचन और कार्य की प्रवृत्ति लेश्या है। समाधिस्थ क्षपक को शुभ लेश्या वाला होना आवश्यक है।
(३९) फल - चार आराधना का फल स्वर्ग और मोक्ष है। समाधिमरण करने वाला सात, आठ भव से अधिक संसार में भ्रमण नहीं कर सकता।
(४०) शरोरत्याग - समाधिमरण करने वाले के शरीर का विसर्जन कैसे करना चाहिए, उसके दाह संस्कार की विधि का कथन शरीर-त्याग है। इस प्रकार समाधि के अधिकार में ४० स्थान कहे हैं परन्तु इन ४० अधिकारों में देवसेन आचार्य द्वारा कथित अर्ह, संगत्याग, कषाय-सल्लेखना (कषायों की कृशता) परीषहविजयी, उपसर्ग सहन करने वाला, इन्द्रिय भटों को जीतने वाला, मनोविजयी ये सात हेतु सल्लेखना विधि में मुख्य हैं। इनके बिना समाधिमरण करना कठिन है।
___ बाल बाल मरण, बाल भरण, बाल पंडित मरण, पंडित मरण, पंडित पंडित मरण के भेद से पाँच प्रकार के मरण हैं। इसमें बाल-बाल मरण मिथ्यादृष्टि के होता है और बाल मरण अव्रती सम्यग्दृष्टि का है, उसका सल्लेखनामरण में अधिकार नहीं है। मिथ्यादृष्टि और अव्रती सम्यग्दृष्टि समाधिमरण नहीं कर सकते। क्योंकि इनके बाह्य परिग्रहों के ममत्व के त्याग का अभाव है। यदि सम्यग्दृष्टि बाह्य परिग्रह का त्याग करता है तो उसके पाँचवाँ गुणस्थान हो जाता है।
देशसंयमी आर्यिका, ऐलका, क्षुल्लक ब्रह्मचारी, व्रती पुरुष का मरण बालपंडितमरण है, उनके एकदेश असंयम का अभाव है। इनका भक्तप्रत्याख्यान मरण हो सकता है। पंडितपंडित मरण १४वें गुणस्थान में है। उनका यहाँ कथन नहीं है।
पंडितमरण के तीन भेद हैं: प्रायोपगमन मरण, इंगिनी मरण और भक्तप्रत्याख्यान मरण । इन तीनों प्रकार के मरण में देवसेन आचार्यदेव द्वारा कथित सात अधिकार परम आवश्यक हैं तथा वही सल्लेखना की साधना के द्वारा स्वसंवेदनजनित सुखामृत का रसास्वादन कर सकता है तथा निर्विकल्प समाधि में लीन होकर घातिया कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है और अन्त में पंडितपंडितमरण कर मुक्ति रमा का पति बन सकता है। अतः ‘अर्ह' आदि सात अधिकारों को जानकर इनकी आराधना कर स्वात्मोपलब्धि प्राप्त करनी चाहिए। देवसेन आचार्य ने कहा है
संसारसुहविरत्तो वेरग्गं परमउवसमं पत्तो। विविहतवतवियदेहो मरणे आराहओ एसो॥१८॥