Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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के समक्ष कहकर अपने चित्त को निर्मल करता है। तथा क्षपक के दोषों को सुनकर गुरुदेव उसको प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करते हैं। यह आलोचना है।
(२४) गुणदोष - दोषों की आलोचना करने में क्या गुण है और आलोचना नहीं करने से क्या दोष उत्पन्न होते हैं, आदि का कथन करना गुण-दोष है।
(२५) शय्या - समाधिस्थ क्षपक के रहने का स्थान, वसतिका, क्षेत्र आदि कैसे हों इनका कथन करना शय्या है।
(२६) संस्तर - शय्या से वसति का कथन है और संस्तर से चटाई आदि का कथन है।
(२७) निर्यापक - समाधि में सहायक जो आचार्य होते हैं उन निर्यापक आचार्य के सहायक आचार्यों का कथन करना।
(२८) प्रकाशन - क्षेपक को यह जानने के लिए अन्तिम आहार दिखाना कि इसकी आहार में आसक्ति है या नहीं ?
(२९-३०) हानि और प्रत्याख्यान - क्रम-क्रम से आहार घटाना, उसकी विधि का कथन करना । जैसे यदि १२ वर्ष की समाधि ग्रहण की है तो प्रथम चार वर्ष अनेक प्रकार के कायक्लेशों के द्वारा व्यतीत करना, तदनन्तर दूध, दही, घी, गुड़ नमक आदि रसों का त्याग कर शरीर को कृश करना। दो वर्ष तक निर्विकृति आचाम्ल भोजन करके आहार की आसक्ति को घटाना | तदनन्तर आचाम्ल भोजन वा उपवास करके एक वर्ष व्यतीत करना। छह महीने तक मध्य तप-एक उपवास, दो उपवास आदि करके आहार ग्रहण करना तथा अन्त में चार प्रकार के आहार में से तीन आहार का त्याग करना, अन्त में सब प्रकार के आहार का त्याग करना हानि और प्रत्याख्यान नामक अधिकार है।
(३१) क्षमण - आहारत्याग के बाद सर्व संघ से क्षमा याचना करना तथा परिपूर्ण रत्नत्रय की आराधना के साथ सर्व जीवों के साथ मैत्री भाव, समता और ध्यान में मग्न होना।
(३२) क्षपणा - प्रतिक्रमण आदि के द्वारा कर्मों का क्षय करने का प्रयत्न करना। (३३) अनुशिष्टि - निर्यापकाचार्य क्षपक को सम्बोधन करते हैं, उपदेश देते हैं।
(३४) सारणा - निर्यापकाचार्य परीषह आदि दुःखों से पीड़ित, मोहग्रस्त क्षपक को बार-बार सम्बोधित करके सचेत करते हैं।
(३५) कवच - जिस प्रकार योद्धा लोगों की रक्षा के लिए कवच होता है वैसे क्षपक की रक्षा का कवच है निर्यापकाचार्य का उपदेश। अतः निर्यापकाचार्य वैराग्योत्पादक शब्दों के द्वारा क्षपक को सम्बोधित करते हैं।