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कि अक्रम विज्ञान को यथार्थ रूप से संपूर्ण-सर्वांग रूप से समझना ही है! बस इतनी ही जागृति पूर्णता प्राप्त करवाएगी। अभी तो महात्माओं को पाँच आज्ञा और 'मैं शुद्धात्मा हूँ', उस अविरत लक्ष्य में रहने के पुरुषार्थ में ही रहना है।
साधक अनादिकाल से एक ही चीज़ के पीछे पड़े हैं कि मुझे शुद्धिकरण करना है, अशुद्धि दूर करनी है। चित्त को शुद्ध करना है ! किसे? मुझे, मुझे, मुझे ! वहाँ दादाश्री की अनुभव वाणी प्रवाहित होती है, 'जो मैला करता है, वह भी पुद्गल है और जो साफ करता है वह भी पुद्गल है!' तू तो मात्र इन सब को 'देखने' वाला ही है ! ऐसे प्रत्येक बात को अविरोधाभासी सैद्धांतिक रूप से प्राप्ति करवा देते हैं।
मूल आत्मा तो केवलज्ञान स्वरूप है, था और रहेगा। यह सारा फँसाव तो संयोगों के दबाव की वजह से है, रोंग बिलीफ से खड़ा हो गया है। एक रोंग बिलीफ उत्पन्न हुई कि 'मैं नीरू बहन हूँ' तो उसमें से अनंत-अनंत रोंग बिलीफें उत्पन्न हो गई हैं ! अक्रम विज्ञान से दादाश्री ने मात्र दो घंटों में ही मूल रोंग बिलीफ को खत्म कर दिया और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' का निरंतर लक्ष्य और प्रतीति दे दी लेकिन (मैं चंदूभाई हूँ) उस रोंग बिलीफ से उत्पन्न हुई अन्य रोंग बिलिफों को खत्म करते-करते
और वापस लौटते-लौटते मूल (वास्तविक), केवलज्ञान स्वरूप तक आना है और अंत में 'खुद' खुद बनकर खड़े रहना है। परम पूज्य दादाश्री की वाणी द्वारा जगह-जगह पर इस रोंग बिलीफ को खत्म करने की कला उजागर होती है जो एकावतारी पद प्राप्त करने के दृढ़ निश्चय को अतिअति सरल और सहज मार्ग बना देती है।
इस प्रकार आप्तवाणी तेरहवीं में पूज्य दादाश्री ने प्रकृति का साइन्स बताकर हद कर दी है और साथ-साथ 'मैं, बावो और मंगलदास' का सब से अंतिम विज्ञान देकर तमाम स्पष्टता कर दी है। जिसे समझने पर अखंड रूप से ज्ञानी की दशा में रहा जा सकता है।
पूज्य दादाश्री ने नीरू बहन और दीपक भाई देसाई को आप्तवाणी की 1-14 श्रेणी प्रकाशित करने की आज्ञा दी थी। उन्होंने कहा था कि
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