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अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 17 12. बालु-ये नारको को गर्म रेत मे चूने की तरह भुनते हैं। 13 वैतरणी-ये मास, रुधिर, पीव वाली, पिघले तॉबे और शीशे आदि उष्ण
पदार्थो से उबलती-उफनती वैतरणी नदी मे नारको को फेक देते हैं
और उन्हे उस नदी मे तैरने के लिए विवश करते है। 14 खरस्वर-ये तीक्ष्ण कॉटो वाले शाल्मली वृक्ष पर नारको को चढाकर
उन्हे इधर-उधर खींचते हैं। 15 महाघोष-घोर यातना से बचने के लिए इधर-उधर भागते नारको को
बाडे मे बद कर देते हैं। कितना दुःसह दुख नारक जीवो को मिलता है। परमाधामी देव कभी उन्हे तेल के कडाह मे तलते, हैं तो कभी रोटी जैसे सेकते हैं तो कभी पशु की तरह घसीटते हैं, लेकिन वहाँ कोई उनको बचाने मे समर्थ नहीं होता।
जिन पारिवारिकजनो के लिए मनुष्य हिंसा करता है, वे पारिवारिकजन वहाँ एक क्षण भी उन्हे शाति नहीं पहुंचा सकते।
नरक की घोर वेदना से हताहत हुआ वह नैरयिक भयंकर रुदन करता हुआ चिल्लाता है। हे स्वामिन ! हे भ्राता ! हे बाप! हे तात! मै मर रहा हूँ। मैं दुर्बल हूँ। मैं व्याधि से पीडित हूँ। मुझे ऐसा दारुण दु ख मत दो। मुझे छोड दो। थोडा-सा विश्राम लेने दो। मैं प्यास से मर रहा हूँ। मुझे थोडा-सा पानी दे दो। लेकिन, हा हा कोई रखवाला नहीं।
उन्हे पानी की जगह उबलता गर्म शीशा पिलाते हैं। वे क्रन्दन करते हैं, रोते हैं तो नरकपाल कुपित होकर उनको धमकाते हैं और चिल्लाते हैं-इसे पकडो, मारो, छेदो, भेदो, चमड़ी उधेडो, नाक-कान काटो
कितनी दुसह वेदना पल्योपमा और सागरोपमा तक भोगते हैं और कई जीव मरकर तिर्यंच योनियो मे पैदा होते हैं। वहाँ भी उन्हे दारुण कष्टो का सामना करना पड़ता है। वे पराधीन बने दुख सहते हैं। गायादि के दूध नहीं देने पर घर से बाहर निकाल देते हैं। कत्लखानो मे बेच देते हैं, जहॉ पर उनकी निर्ममतापूर्वक हत्या की जाती है।
कई पुण्यहीन प्राणी नरक से निकलकर मनुष्य जन्म प्राप्त करते है, लेकिन
(क) नरकपाल-नरक की रक्षा करने वाला, परमाधामी (ख) पल्योपम-चार कोस के कुएँ को युगलिको के बाल से ठसाठस भरने पर, 100 वर्ष से एक
बाल निकालने पर जितने समय मे वह कुआँ खाली हो, वह एक पल्यापम होता है। (ग) सागरोपम-दस कोटाकोटि पल्योपम को इतने से हो गुणा करने पर एक सागरोपम होता है।