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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 29
प्रभु दर्शनो की ललक को मन मे सजोए न जाने कब पथ की इतिश्री हो गई, पता ही नहीं चल पाया। वे भव्य आभा वाले समवसरण मे प्रविष्ट हुए और प्रभु के अतिशयसम्पन्न आभामण्डल को देखकर स्तब्ध रह गए। तभी भगवान् ने उन्हे सम्बोधित करते हुए कहा - सुधर्मन् अग्निवेश्यायन ! तुम्हारे मन मे एक सशय व्याप्त है। तुमने एक वेद वाक्य श्रवण किया - "पुरुषोमृत सन् पुरुषत्वमेवाश्नुते पशव पशुत्वम्' अर्थात् पुरुष मरकर पुरुष होता है व पशु मरकर पशु होता है, लेकिन दूसरी जगह वेद में कहा है कि " शृगालो वै एष जायते य स पुरीषो दह्यते” अर्थात् जिसको मल सहित जलाया जाता है, वह शृगाल बनता है। इस प्रकार वेद वाक्यो से तुम्हे सदेह हो रहा है कि जो इस लोक मे मनुष्य है वह मरकर क्या मनुष्य ही बनता है या तिर्यंच आदि बन सकता है?
सुधर्मन् । जो तुम यह सोचते हो कि मनुष्य मरकर सदैव मनुष्य ही बनता है, तुम्हारा यह सोचना ठीक नही है, क्योकि कई लोग मनुष्य गति मे दान, शील, तप आदि की श्रेष्ठ आराधना करते हैं और विशेष पुण्य का अनुबंध करने से वे मनुष्य नहीं, देव योनि को प्राप्त करते हैं अन्यथा दान आदि निष्फल हो जाएगे। चूँकि कर्मानुसार योनि प्राप्त होती है, इसलिए जो जैसा करता है उसको वैसी ही गति प्राप्त हो जाती है। वेद मे जो कहा है कि पुरुष मरकर पुरुष होता है उसका तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य इस भव मे सज्जन, विनयी, दयालु और अमत्सर प्रकृति का होता है, वह मनुष्य नाम गोत्र कर्म का बधन करता है। ऐसा मानव मृत्यु आने पर कालधर्म को प्राप्त कर मनुष्य गति मे जाता है, लेकिन सभी मनुष्य, मनुष्य गति मे नहीं जाते। इसी प्रकार जो तिर्यच माया के कारण तिर्यंचनामगोत्र का उपार्जन करता है, वह पुन पशु योनि को प्राप्त करता है, सभी नहीं। इस प्रकार जीव की कर्मानुसार गति होती है। वेद मे भी यही कहा गया है कि पुरुष भी शृगाल रूप मे पैदा होता है ।
भगवान् के इस प्रकार फरमाने पर सुधर्मा स्वामी का सशय दूर हुआ। वे प्रभु चरणो मे निवेदन करते हैं-भते ! मुझे आपश्री के चरणो मे प्रव्रजित करने की कृपा करावे । तब भगवान् ने सुधर्मा एव उनके 500 शिष्यो की भावना को जानकर उन्हें प्रव्रजित किया । 17
मंडित पुत्र ने सुधर्मा एव उनके 500 शिष्यो के द्वारा प्रव्रज्या अगीकार कर ली गई है, ऐसा श्रवण किया तब उनके मन के महासागर मे प्रभु को वदन - नमस्कार करने एव पर्युपासना - उपासना करने के भाव जागृत हुए और उन्हीं भावो मे अवगाहन करते हुए वे यज्ञ मण्डप से निकल कर समवसरण की ओर बढने लगे । समवसरण मे प्रविष्ट होकर प्रभु के चरणो मे नमस्कार किया ।
(क) अमत्सर- ईर्ष्या-रहित (ख) तिर्यचनामगोत्र तिर्यंचगति में जाने योग्य नाम गोत्र कर्म