Book Title: Apaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Author(s): Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
Publisher: Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
View full book text
________________
256 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय का तेज निरस्त होने लगा मानो चन्द्र को राहु ने ग्रसित कर लिया हो । रोम-रोम कम्पित होने लगा, ऑखे भयग्रस्त होकर चुधिया गयीं और रोमकूपो से पसीना चूने लगा। अब क्या करूँ कहाँ जाऊँ मै मैं यहाँ नहीं रह सकता एक क्षण भी नहीं तब कैसे बोलूं, क्या कहूँ लेकिन बिना बताये जाना कायरता होगी तब तब मेरे धर्मगुरु को कहता हूँ, (धीरे से गौतम गणधर के पास जाकर) मैं मैं इनके पास नहीं जाऊँगा।
गौतम-ये तो मेरे धर्माचार्य हैं।
किसान-नहीं, मैं यहाँ नहीं रह सकता। मैं जाता हूँ मैं जाता हूँ। यो कहकर वह भयक्रान्त होकर वहाँ से खिसक गया 4 गौतम गणधर ने उसको समझाने के लिए पीछे देखा तो वे आश्चर्यचकित रह गये कि वह तो अपने खेत की ओर बेतहाशा भाग रहा था, जैसे नील गाय मानव को देखकर भागती है। तब गणधर गौतम प्रभु के पास आये और वन्दन-नमस्कार करके प्रभु से पृच्छा करने लगे-भते आप जैसे अतिशयसम्पन्न महापुरुष को देखकर हर आत्मा खिची चली आती है, जो भी आपश्री के चरणो मे एक बार आता है वह परम शाति का अनुभव करता है। क्रूर से क्रूर व्यक्ति भी आपके दर्शनो से शात-प्रशात बन जाता है। जन्मजात वैर-बधन भी विनष्ट हो जाता है, लेकिन मुझे अत्यन्त आश्चर्य है कि जिस किसान ने प्रतिबोधित होकर सयम ग्रहण किया, वह किसान आपका मुखमण्डल देखते ही भयभीत होकर भाग गया। इसका क्या कारण?
भगवन्-यह सब कर्मो का ही खेल है। इस किसान के जीव की तुम्हारे साथ पूर्वबद्ध प्रीति है इसलिये तुम्हे देखते ही इसके मन मे अनुराग पैदा हो गया और इसको सुलभबोधित्व की प्राप्ति हुई। लेकिन मेरे प्रति अभी इसके मन मे पूर्ववैर एव भय की स्मृतियाँ अवशिष्ट हैं, इसलिए मुझे देखकर यह भयाक्रान्त बन
गया।
गौतम-भगवन् ! यह आपके प्रति वैर और मेरे प्रति अनुराग किस भव से सम्बन्धित है।
भगवन्-गौतम ! जब मैं त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव मे राजकुमार था उस समय तुम मेरे प्रिय सारथि थे और इस किसान का जीव शेर-रूप मे था। उस समय मैंने सिह को पकड कर चीर डाला | तब वह तडफने लगा कि मैं इतना शूरवीर होकर भी दूसरो के द्वारा मारा गया। तब तुमने अपने शीतल वचनो से उसकी तडफन शात करते हुए कहा-वनराज ! तुम क्यो ग्लान भाव का अनुभव (क) सुलभबोधित्व-सम्यक्त्व

Page Navigation
1 ... 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257