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78 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय
रही थी । उसका वह शयनकक्ष मनमोहक चित्रशाला की शोभा को विजित कर रहा था । शयन घर की भित्तियों पर बने अनेक पशु-पक्षियों के आकर्षक चित्र बरबस मन को मोह लेते थे । स्थान-स्थान पर जडित मणियो का उज्ज्वल प्रकाश रात्रिजन्य अधकार का पराभव कर रहा था। सुगधित द्रव्यो की सुगध से सुगधित शयनागार गधवट्टिका की तरह सुशोभित हो रहा था ।
उस उत्तम कक्ष मे महारानी के शरीर प्रमाण शय्या बिछी थी । उस पर अत्यन्त सुकोमल बिस्तर, जिसके दोनो तरफ तकिये लगे थे, उस पर कशीदा कढा हुआ आकर्षक चद्दर बिछा था। ऐसी सुन्दर शय्या पर शयन करती हुई महारानी धारिणी अर्धरात्रि के समय अर्धजागृत अवस्था मे थी । इसी समय महारानी ने देखा कि सप्त हाथ ऊँचा चाँदी के पर्वत के समान एक श्वेत वर्ण वाला गजराज आकाश से उतर कर उसके (धारिणी के ) मुख मे प्रविष्ट हो रहा है। इस उत्तम, उदार स्वप्न को देखकर महारानी धारिणी अत्यन्त प्रमुदित हुई। जागृत होकर शय्या पर बैठी और चितन किया - यह शुभ स्वप्न कल्याणदायक, पाप विनाशक, उत्तम फल प्रदायक है । अत्यन्त मगलकारी यह स्वप्न शुभ फलसूचक है। मुझे महाराजा को इसी समय यह स्वप्न बता देना चाहिए ताकि स्वप्न का परिपूर्ण फल सप्राप्त हो जायेगा ! ऐसा चितन कर महारानी अपनी शय्या से उठी । धीरे-धीरे आहट रहित कदमो से अपने शयन कक्ष से बाहर निकली और जहाँ महाराजा श्रेणिक का शयन कक्ष था, वहाँ पर आई। आकर जहाँ महाराजा श्रेणिक शयन कर रहे थे वहाँ पर पहुँच गयी और पहुँच कर मधुर मधुर शब्दों से राजा को सम्बोधित किया- राजन् उठिये नृपति उठिये राजा ने आँखे खोली तो देखा महारानी धारिणी खडी हे । राजा ने पूछा- महारानी | तुम अभी?
महारानी- राजन् | में विशेष प्रयोजन से आई हूँ।
- बोलो।
राजा ---
महारानी- राजन् । आज मैने मगलकारी स्वप्न देखा है।
राजा - अच्छा, बताओ क्या देखा?
म
महारानी - एक सप्त हस्त ऊँचाई वाला श्वेतवर्णी युवा हस्ती मेरे मुख मण्डल मे प्रविष्ट हुआ ।
राजा - सुन्दर स्वप्न है। समय आने पर तुम एक शूरवीर शिशु का प्रसव करोगी ।
महारानी - मने भी यही चितन किया था। अब में अपने शयन कक्ष में जा रही हूँ । यो कहकर महारानी अपने शयनकक्ष मे चली जाती हे और धार्मिक कहानियो आदि का स्मरण करते हुए जागृत रहकर अवशेष रात्रि व्यतीत करती है।