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__ अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 83 श्रेणिक इसी मण्डिकुक्षि उद्यान मे पहुंचे और वहाँ घूम-घाम कर उसकी अभिनव छटा का दिग्दर्शन करने लगे। घूमते-घूमते अचानक उनकी दृष्टि एक वृक्ष पर पड़ी। उस ओर देखकर-ओह ! वृक्ष के नीचे यह कौन यह कौन
खडा है। अहो ! रूप-सम्पदा की साक्षात् प्रतिमूर्ति, तरुणाई की सुन्दर आभा धारण किये एक मुनि, जो सुकुमार है, समाधि भावो मे लीन सयत अवस्था मे ध्यानस्थ खडा है। राजा श्रेणिक उसे अपलक निहारने लगा। निहारते-निहारते अत्यन्त भावुक होकर सोचता है-अहो ! कितना सुन्दर वर्ण है, कितना नेत्राकर्षक रूप है, अरे! इस आर्य का कैसा सौम्य स्वरूप है। इसके वदन पर कितनी क्षमा झलक रही है। कैसी निर्लोभी भव्य मूरत है। कैसी भोगो से विरक्ति है।
क्या मैं भी जाऊँ इसके पास? इसकी भव्याकृति, नवागत परिमल बनकर, मधुप बने मुझे समाकृष्ट कर रही है। इस यौवन की देहली पर ये योगी क्यो बना क्यो इतनी कठिन साधना कर रहा है . जाऊँ जाऊँ इससे पूछू ?
ऐसा विचार कर मगधेश मुनि के पास पहुंच कर उन्हे अपलक निहारते रहते हैं। जब मुनि ध्यान खोलते है, तब राजा आदक्षिण प्रदक्षिणा करके उन्हे वदन करते हैं और मुनि के न अतिनिकट, न अतिदूर रहकर अजलिबद्ध होकर पूछते हैं-हे आर्य ! आपके अग-प्रत्यगो से तरुणाई की आभा प्रस्फुटित हो रही है। इस तरुणाई मे भोग भोगने के इस समय आप प्रव्रजित हो गये, आपने श्रमण धर्म स्वीकार कर लिया, यह देखकर मुझे अत्यन्त विस्मय हो रहा है। अत आप बताइये कि आपने भोगावस्था मे योग क्यो लिया?
अनाथी मुनि-राजन् ! मैं अनाथ हूँ। मेरा कोई नाथ नहीं है। मेरे पर दया, करुणा करने वाला कोई नही था, इसलिए नृपति ! मैंने योग धारण किया।
राजा श्रेणिक (अट्टहास करते हुए)-अरे ! अनाथ इतने वैभवशाली दिखलाई दे रहे हो, तब कैसे तुम अनाथ थे? चलो, तुम्हारी बात स्वीकार भी कर लेता हूँ कि तुम अनाथ थे, लेकिन अब मै तुम्हारा नाथ बनता हूँ, तुम मेरे साथ चलो और मित्र एव ज्ञातिजनों से परिवृत होकर विषय-सुख का उपभोग करो, क्योकि मनुष्य भव दुर्लभ है। ___अनाथी मुनि-हे मगधाधिप श्रेणिक ! तुम स्वय अनाथ हो। स्वय अनाथ होते हुए मेरे नाथ कैसे बन पाआगे?
(क) शातिजन-सजातीय माता-पिता सम्बन्धी परिवार
(क) परिवृत-युक्त