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96 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय
अतएव हे श्रमणो | सासारिक भोगो की अभिलाषा पापकारी है। यह निर्ग्रन्य । प्रवचन ही सत्य है और इसी से दुख-परम्परा का अत होता है। 2. श्रमणी का राजसी भोग हेतु निदान :
हे भव्यों ! अनेक कन्याएँ, अनेक स्त्रियाँ निर्ग्रन्थी जीवन को अगीकार करती है और वे कदाचित् भूख और प्यासादि परीषह से पीडित होकर प्रबल कामवासना के उदय से कदाचित् ऐसी स्त्री को देखती हैं जो अपने भर्ता को इष्ट, कात लगती है। वस्त्राभूषणो से अलकृत रत्नो की पेटी की तरह स्वामी द्वारा सरक्षित होती है।
प्रासाद मे गमनागमन करने पर उसके आगे-आगे छत्र, झारी आदि लेकर अनेक दास, भृत्यादि गमनागमन करते है यावत् एक को बुलाने पर चार-पाँच नौकर उपस्थित हो जाते हैं। उसके उस ठाठ-बाट को देखकर वह परीषह पीडित निर्ग्रन्थिन निदान करती है कि मेरे तप, नियम और ब्रह्मचर्य का विशिष्ट फल हो तो मैं भी आगामी काल मे इसी स्त्री की तरह मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों को भोगते हुए विचरण करूँ तो यह श्रेष्ठ होगा। __हे आयुष्मन् श्रमणो! वह निर्ग्रन्थिन निदान करके उस निदान की आलोचना, प्रतिक्रमण किये बिना देह त्याग कर देवलोक मे देव रूप मे उत्पन्न होती है। वहॉ दिव्य देवऋद्धि का उपभोग करके वह उग्रवशीय या भोगवशीय बालिका रूप मे उत्पन्न होती है।
उस अत्यन्त सुकुमार देह वाली बालिका को युवावय प्राप्त होने पर उसके माता-पिता अनुरूप पति से उसका पाणिग्रहण कर देते हैं। अपने उस पति को वह स्त्री इष्ट, कात, प्रिय, मनोज्ञ, अतीव मनोहर, धैर्यसम्पन्न, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत और रत्न के पिटारे के समान सरक्षण योग्य लगती है। उस स्त्री के गमनागमन करते समय उसके आगे छत्र, झारी आदि लेकर अनेक दास-दासी, नौकर आदि चलते हैं यावत एक को बुलाने पर बिना बुलाये हा चार-पाँच सेवक सेवा मे उपस्थित हो जाते हैं और अत्यन्त विनय से पूछत हैं-हे देवानुप्रिय । हम क्या करे? आपके लिए क्या लाये?
इस प्रकार वह स्त्री मनुष्य सम्बन्धी भोग भोगती है, तब उसे कोई तप-सयम के मूर्तरूप श्रमण महान केवली प्ररूपित धर्म कहते हैं तो वह पापकारी निदानशल्य के कारण केवली प्ररूपित धर्म को श्रवण नहीं करती और वह उत्कृष्ट अभिलाषाआ के कारण मृत्यु प्राप्त होने पर दक्षिण दिशावर्ती नरक मे कृष्णपाक्षिक नैरयिक के रूप मे उत्पन्न होती है। 3. श्रमण का स्त्री बनने हेतु निदान :
हे आयुष्मन् श्रमणो ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य यावत् समस्त दुखो का