________________
अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 95 हुआ विचरण करता है। जब वह कार्य के लिए एक सेवक को बुलाता है तो उसके चार-पाँच सेवक उसके शब्दो को श्रवण कर बिना बुलाये ही उपस्थित हो जाते हैं और वे उस राजकुमार से पूछते है -
"हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करे? क्या लाये? क्या अर्पण करे? और क्या आचरण करे? आपकी हार्दिक अभिलाषा क्या है? आपके मुख को कौन-कौन से पदार्थ स्वादिष्ट लगते हैं?"
इस प्रकार उस राजकुमार के निराले ठाठ-बाट रहते हैं, जिन्हे दृष्टिगत कर वह परीषह पीडित निर्ग्रन्थ निदान करता है, मेरे तप, नियम और ब्रह्मचर्य पालन का विशिष्ट कल्याणकारी फल हो तो मैं भी आगामी काल मे उत्तम मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगो को भोगते हुए विचरण करूँ, यह मेरे लिए अच्छा होगा। __ हे आयुष्मन् श्रमणो ! इस प्रकार वह निर्ग्रन्थ निदान करके, सकल्पो की आलोचना, प्रतिक्रमण किये बिना अतिम समय मे देह त्यागकर महाऋद्धि, महाद्युति, महाबल, महायश, महासुख, महाप्रभा वाले दीर्घ, स्थिति वाले किसी देवलोक मे देव रूप मे उत्पन्न होता है। वहाँ देवलोक मे दिव्य सुख भोगता हुआ अपनी आयु के क्षीण होने पर शुद्ध मातृ-पितृ पक्ष वाले उग्रकुल या भोगकुल मे राजकुमार रूप मे उत्पन्न होता है।
वह शिशु सुकुमाल हाथ-पैर वाला, सुन्दर व्यजनक एव लक्षणों वाला चन्द्र-सम सौम्य कातिवाला, सुरूप होता है। बाल्यावस्था व्यतीत होने पर वह बालक युवावस्था को प्राप्त करने पर अपने सदगणो से पैतक सम्पत्ति को प्राप्त कर लेता है। उसके बाहर गमनागमन करते समय आगे छत्र, झारी आदि लेकर अनेक नोकर-दासादि चलते हैं और वह अपने निदानानुसार राजसी ठाठ-बाट से अपना जीवन व्यतीत करता है।
उस समय उस राजकुमार को कोई श्रमण महान केवली प्ररूपित धर्म कहते है, तब भी वह उसे नही सुनता क्योकि पूर्वकृत निदान के पापकारी परिणाम के कारण वह धर्म-श्रवण के योग्य नहीं रहता। अतएव महान् इच्छावाला वह राजकुमार मृत्यु आने पर काल करके दक्षिण दिशावर्तीग नरक मे कृष्णपाक्षिका नैरयिक रूप में उत्पन्न होता है तथा भविष्य मे उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति दुर्लभ होती है। (क) व्यंजन-शरीर के शुभाशुभ चिह्न-मस, तिल आदि। (स) लक्षण-स्वस्तिकादि शरीर के शुभाशुभ लक्षण । (ग) दक्षिण दिशावर्ती-भारी कर्मा जीव नारकी में दक्षिण दिशा में उत्पन्न होता है। (५) कृष्णपाक्षिक-अनन्त संमारी