Book Title: Apaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Author(s): Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
Publisher: Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 177
________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 219 करना। उत् उपसर्ग लगने से अर्थ हो जाता है गीलेपन को हटाना । "लू" घातु का अर्थ हटाना या छीनना । इसी से लूपण, लूषक आदि शब्द बनते है । इस विषय मे वृत्तिकार कहते हैं - उल्लणियत्ति स्नान जलार्द्रशरीरस्य जललूषणवस्त्रम् अर्थात् स्नान के पश्चात् गीले शरीर को पोछने वाला तौलिया । उपासकदशाग, अभयदेवसूरि, पत्राक - 16 XVII फलविधि दूधिया ऑवला जिसमे गुठली नहीं पडी हो । प्राचीन समय मे इसका उपयोग सिर एव आँखे धोने के लिए किया जाता था - अभयदेववृत्ति, पत्राक 16-17 जिस तैल को सौ वस्तुओ के साथ सौ बार पकाया जाये अथवा जिसका मूल्य 100 कार्षापण हो, उसे शतपाक कहते हैं। XVII शतपाक 1 IXX सहस्रपाक 1 जिस तैल को हजार वस्तुओ के साथ हजार बार पकाया जाये या जिसका मूल्य हजार कार्षापण हो उसे सहस्रपाक कहते हैं। अभयदेववृत्ति, पत्राक 17 XX घी I आनन्द श्रावक ने मात्र शरद ऋतु मे गोघृत रखा शेष सबका परित्याग कर दिया। उसका मूल कारण स्वास्थ्य का दृष्टिकोण है । आयुर्वेद के अनुसार शरद ऋतु की किरणो से अमृत - जीवन रस टपकता है, जिससे वनस्पतियो मे, घासादि मे विशेष रस का सचार होता है। इस समय घासादि को चरने वाली घायो का घी गुणात्मक होता है । ताजा घी पाचन मे भारी होता है जबकि एक वर्ष पुराना घी गुणात्मक होता है । वह अखाद्य नहीं होता है। भावप्रकाश घृत वर्ग 15 मे उल्लेख मिलता है कि एक वर्ष पुराना घी वात, पित, कफनाशक होता है। वह मूर्च्छा, कुष्ट, विष - विकार, उन्माद, अपस्मार तथा आँखो के सामने अधेरी आना आदि दोषो का नाशक होता है । चरक सहिता मे पुराना घी औषधि रूप मे भी प्रयुक्त होता है, ऐसा लिखा हे । XXXI 26 बोल उपासकदशाग सूत्र मे 21 बोल की मर्यादा का वर्णन है। वाहणविहि, उवाहणविहि, सयणविहि, सचित्तविहि और दव्वविहि ये पॉच बोल धर्मसग्रह मे श्रावक के 14 नियमो मे है। श्रावक प्रतिक्रमण के सातवे व्रत में 26 बोलो की मर्यादा की परिपाटी है इसलिए 5 बोलो का विवेचन इस प्रकार जानना चाहिये1 वाहणविहि जिन पर चढकर भ्रमण या प्रवास किया जाता है, - 1

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