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98 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय
5.
श्रमण - श्रमणी द्वारा परदेवी परिचारण निदान :
हे आयुष्मन् श्रमणो । केवली प्ररूपित धर्म ही सत्य है यावत् सब दुखो का अत करने वाला है। ऐसे केवली प्ररूपित धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिन मानुषिक भोगो से विरक्त हो जाये और वह यह सोचे "मानवीय कामभोग अध्रुव, अशाश्वत और नश्वर है । मल-मूत्र - श्लेष्म-वात-पित्त-कफ-शुक्र एव शोणितजन्य हैं, दुर्गन्धित श्वासोच्छ्वास तथा मल-मूत्र से परिपूर्ण हैं । वात-पित्त-कफ के आगमन द्वार रूप हैं, ये अवश्यमेव पहले अथवा पीछे त्यागने योग्य है, लेकिन जो ऊपरी देवलोको मे देव रहते हैं वे अन्य देवो की देवियो को अधीनस्थ करके उनके साथ, अपनी देवियो के साथ एव विकुर्वित देवियो के साथ विषय सेवन करते है ।"
अतएव मेरे सम्यक् आचरित तप, नियम और ब्रह्मचर्य का विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य मे ऐसे दिव्य भोगो को भोगता हुआ / भोगती हुई विचरण करूँ, यह श्रेयस्कर होगा ।
ऐसा निदान करके वह निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिन देव रूप मे उत्पन्न होता / होती है। वहाँ वह अन्य की देवियो के साथ, अपनी देवियो के साथ, स्वविकुर्वित देवियो के साथ भोग भोगते हुए आयु समाप्त होने पर उग्रवशी भोगवशी कुमार के रूप मे पैदा होता / होती है, जहाँ अनेक नौकर, दास आदि उसकी सेवा मे सलग्न रहते है। उस समय उसे कोई तपस्वी श्रमण-माहन केवली प्ररूपित धर्म सुनाता है तो वह श्रवण करता/करती है, लेकिन श्रद्धा नहीं कर सकता/सकती, यह निदान का पापकारी परिणाम है । वह वहाँ से मरकर दक्षिण दिशावर्ती कृष्णपाक्षिक नैरयिक के रूप मे पैदा होता / होती है और भविष्य मे उसे समकित की प्राप्ति दुर्लभ होती है ।
6.
श्रमण - श्रमणी द्वारा स्वदेवी परिचारण का निदान :
हे आयुष्मान श्रमणो । यह केवली प्ररूपित धर्म ही सत्य यावत् सब दुखो का अत करने वाला है ।
कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिन केवली प्ररूपित धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर, परीषह से पीडित होकर मानवीय कामभोगो से विरक्त होकर ऐसा चितन करे -
मनुष्य सम्बन्धी कामभोग अनित्य, अशाश्वत हैं, ये शुक्र- शोणित- मल-मूत्रादि से जनित एव अवश्य त्याज्य हैं, अतएव जो ऊपर देवलोक मे देव रहते है, वे अपनी विकुर्वित देवियो के साथ एव अपनी देवियो के साथ विषय सेवन करते हैं, वे श्रेष्ठ है। यदि मेरे तप, सयम एव ब्रह्मचर्य का विशिष्ट फल हो तो मैं भी ऐसा