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अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 101 उत्पन्न होता है और अनेक नौकरादि सदैव उसकी सेवा मे तत्पर रहते है। वह ऋद्धिसम्पन्न पुरुष किसी निर्ग्रन्थ के द्वारा केवली प्ररूपित धर्म को श्रवण करता है, उस पर रुचि रखता है, गृहत्यागी साधु बनता है, लेकिन उस भव मे सिद्ध नहीं बनता। वह सयम पर्याय का पालन कर सलेखणा सथारा करके देव रूप मे पैदा होता है। उस निदान के पापकारी परिणाम के कारण वह उस भव मे सिद्ध नहीं बनता। 10. अनिदान से मुक्ति :
हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो निर्ग्रन्थ प्रवचन की आराधना के लिए उपस्थित होकर तप-सयम मे पराक्रम करता हुआ काम-रागादि से सर्वथा रहित सम्पूर्ण चारित्र की आराधना करता है, वह उसी भव मे अरिहत, केवली, सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन जाता है। वह सम्पूर्ण लोक मे सब जीवो के सर्वकालीन भावों को जानता-देखता है।
वह अतिम समय मे सम्पूर्ण कर्म क्षय कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यह निदान रहित साधना का कल्याणमय परिणाम है जिससे वह उसी भव मे सिद्ध हो जाता है यावत् सभी दुखो का अत कर देता है।
इस प्रकार उपस्थित श्रमण-श्रमणियो ने भगवान् के मुख से निदान एव अनिदान का वर्णन श्रवण कर भगवान् महावीर को वदन-नमस्कार किया और वदन-नमस्कार करके पूर्वकृत निदानशल्यो की आलोचना, प्रतिक्रमण करके यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तप स्वीकार किया।154
इस प्रकार प्रभु ने निदान के बारे में विस्तृत निरूपण किया। निदान को आवश्यक सूत्रकार ने आभ्यन्तर शल्य-आत्मा का कॉटा कहा है। जैसे कॉटा जब तक लगा रहता है, वह तन की समाधि भग करता है। इसी प्रकार निदान रूपी कॉटा भी जब तक लगा रहता है वह चारित्र और मुक्ति मे बाधक बनकर खटकता रहता है इसलिए आत्माभिमुखी साधु को निदान नहीं करना चाहिए। यहाँ भगवान् ने नौ प्रकार के निदान बताये है, लेकिन निदान की कोई सख्या निश्चित नहीं है। समवायाग सत्र मे कहा है-वासुदेव, प्रतिवासुदेव नियमा निदानकृत होते है। चक्रवर्ती निदानकृत भी होते हैं और निदान रहित भी।155
अन्य कोई भी कोणिक आदि की तरह निदान कर सकता है। तप, सयम एव ब्रह्मचर्यादि का पालन करने वाला ही निदान करता है और वह अपनी लालसा क कारण तप, सयम को दॉव पर लगा देता है। अस्त, निदान करने वाला दुख-परम्परा का अत नही कर सकता। इसलिए भगवान ने अनिदान की प्रेरणा दाह, जो प्रत्येक श्रमण-श्रमणी एवं सदगृहस्थ के लिए अनुकरणीय है।