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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 85 राजन् ! मेरी माता ! वह पुत्र-शोक के दुख से सदैव पीडित रहती थी, लेकिन वह मुझे दुख से मुक्त नहीं कर सकती, यह मेरी अनाथता है।
मेरे सहोदर छोटे-बडे भाई मेरे दुख दूर करने का भरसक प्रयत्न करते रहे, लेकिन वे मुझे दुख से विमुक्ति नहीं दिला सके, यही मेरी अनाथता है।
राजन् । मेरी अनुजा, अग्रजा बहिने मेरे दुख से व्यथित होकर विविध प्रयत्न करती रही, लेकिन उन्हे सफलता नहीं मिली, यह मेरी अनाथता है। ___महाराज ! क्या बताऊँ, मेरी विवाहिता पत्नी, जो सदैव मुझ मे अनुरक्त रहती थी, सदैव मेरे अनुकूल ही आचरण करने वाली थी, वह अपनी अश्रु-लडियो से अपने उर स्थल को गीला करती रही। उस नव-यौवना भार्या ने मेरे लिए अन्न, पानी, स्नान, गधा, माला और विलेपन", सभी का परित्याग कर दिया और उसके अनुराग का तो कहना ही क्या, एक क्षण के लिए भी वह उस समय मेरे से दूर नहीं गयी, लेकिन फिर भी वह किचित् मात्र भी मेरा दुख दूर नहीं कर सकी, यह मेरी अनाथता है।
यह सब देखकर मेरे मन की बाहर से भीतर की यात्रा प्रारम्भ हो गयी और मैंने चितन किया-ओह | जीव इस अनत ससार मे अवश्य ही दुख-वेदना का बारम्बार अनुभव करता है, अब यदि मुझे इस असह्य शारीरिक दुख से विमुक्ति मिल जाये तो मैं क्षमावान, इन्द्रियजयी, गआरम्भ-रहित अणगार बन जाऊँगा।
हे राजन् । ऐसा चितन कर मैं निद्रा लेने के लिए प्रयासरत हुआ और मुझे नींद आ गयी। जैसे-जैसे रजनी व्यतीत होने लगी, वैसे-वैसे मेरी वेदना भी शनै-शनै नष्ट होने लगी और प्रात काल के समय मे, मैं निरुज-निरामय बन गया।
जब मैं प्रात काल जागत हआ तो मैने अपना विचार अपने पूज्य माताजी, पिताजी आदि के समक्ष रखा । उन्होने प्रव्रज्या ग्रहण करने की अनुमति प्रदान करदी, तब मैंने सयम अगीकार कर लिया।
राजन् ! सयम लेने के पश्चात मैं स्वय का एव त्रस, स्थावर प्राणियो का नाथ (रक्षक) बन गया, क्योकि कुमार्ग पर प्रवृत्त आत्मा ही वैतरणी नदी और कूटशाल्मलि वृक्ष है और सुमार्ग पर प्रवृत्त आत्मा ही कामधेनु गाय एव नन्दन वन है। आत्मा ही अपने सुख-दुख का कर्ता और विकर्ता-विनाशक है। सदप्रवृत्ति करने पर आत्मा ही मित्र बन जाती है और दुष्प्रवृत्ति करने पर आत्मा ही शत्रु बन जाती है।
लेकिन राजन् । केवल सयम लेने मात्र से व्यक्ति नाथ नही बन जाता। (क) गध-गध प्रदान वस्तु के सात भेद होते है-मूल, त्वचा, काष्ठ, निर्यास (कपूर) पत्र, पुष्प और फल। (ख) विलेपन-चन्दनादि का लेप (ग) आरम्म-हिमा रहित
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