________________
70 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग- द्वितीय
दासी ने कहा- ठीक है । सारी बात पक्की हो जाती है।
इधर अभयकुमार सुरग खुदवाने का कार्य शुरू कर देते हैं। सुज्येष्ठा निरन्तर इतजार करती है । पल-पल निकलना भारी है। दिन तो जैसे-तैसे निकल जाता है, पर रात्रि वह करवटे बदल-बदल कर थक जाती है, लेकिन विरह वह तो विरह ही है। आखिर इतजार करते-करते वह दिन भी आ जाता है जब मगध`L सम्राट श्रेणिक रथ लेकर सुरंग मार्ग से सुलसा के बत्तीस पुत्रो के साथ उपस्थित हो जाता है। जब सुरग के दूसरे द्वार पर श्रेणिक आया तो उसने सुज्येष्ठा को सुरग द्वार पर खडे खडे ही देख लिया व हर्षित हुआ कि अहो | जिसे मैंने पहले चित्र मे देखा था आज साक्षात् अप्सरा मेरे सामने खडी है। इधर सुज्येष्ठा ने भी देखा श्रेणिक आ गए हैं, वह सम्मिलन को उद्यत हुई ।
मन मृग की भाँति कुलाचे भर रहा है। कदमो मे नवस्फूर्ति का सचार हो रहा है। नयनों मे अभिनव मूरत समाहित हो रही है। लेकिन जाने से पहले चितन आता है। हाय । इतने दिन मैंने चेलना से कुछ नहीं कहा। वह मेरी कनिष्ठ भगिनी धूप- -छाँव की तरह सदैव मेरे साथ रहने वाली है। उसको तो बताऊँ.. जल्दी से चेलना के पास जाती है और कहती है- बहिन । मैं जा रही हूँ।
चेलना - (आश्चर्यचकित -सी) कहाँ ?
सुज्येष्ठा - राजा श्रेणिक के साथ ।
चेलना-श्रेणिक ?
सुज्येष्ठा - हॉ, राजगृह के सम्राट् श्रेणिक को मै हृदय सम्राट् के रूप मे वरण कर चुकी हूँ।
चेलना-श्रेणिक कहाँ है?
..
सुज्येष्ठा - सुरग द्वार पर खडे मेरा इतजार कर रहे हैं।
चेलना-सुरग द्वार पर? क्या तुमने जाने की पूर्ण तयारी कर ली ? सुज्येष्ठा - हॉ, अब तुम्हे क्या करना है, जल्दी बोलो। चेलना - में तुम्हारे बिना कैसे रह पाऊँगी में भी चलती हूँ साथ मे । सुज्येष्ठा - जल्दी कर, तू रथ मे बैठ, में रत्नो का पिटारा लेकर आती हूँ। चेतना रथ मे वेठ गयी । सुज्येष्ठा गहनो का डिब्बा लेने गयी ।
तभी सुलसा के बत्तीस पुत्र, जो श्रेणिक के अगरक्षक थे वे आये ओर बोले- महाराज जल्दी करो, शत्रु सेना हमला बोल सकती है।