________________
TF ने
12
अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 69 दुकान पर गई और निवेदन किया-कुमार ! आज मैं तुमसे कुछ याचना करने आई हूँ।
अभयकुमार बोला-कहो, क्या कहना चाहती हो? दासी (अत्यन्त मधुर स्वर में)-वह चित्रपट. जो मन को मत्रमुग्ध बना रहा है। कुमार ने पूछा-किसको दिखाना चाहती हो? दासी-राजकुमारी सुज्येष्ठा को।
कुमार बोला-अच्छा ले जाओ, लेकिन वापस सुरक्षित ले आना। दासी-हॉ, कुमार ऐसा ही होगा। यो कहकर दासी ने अत्यन्त गोपनीयता से चित्रपट लाकर सुज्येष्ठा को दे दिया। सुज्येष्ठा उस चित्र को देखते ही उसमे निमज्जित हो डुबकियाँ लगाने लगी। होश सम्हाल कर अपनी सखी से बोली कि यह पुरुष मेरे हृदय का सम्राट् बन गया है। इसको मैं अपना सर्वस्व अर्पण करना चाहती हूँ। अत तुम ऐसा उपाय करो जिससे कि मैं इस युवक को अपना स्वामी बना सकूँ। सखी | तुझे वणिक् को प्रसन्न करके मेरा यह कार्य करना ही होगा।
दासी ने कहा-धैर्य धरो स्वामिनी । अभी जाती हूँ।
यो कहकर दासी चित्र लेकर पुन दुकान पर गई और कुमार से बोली-कुमार। मेरी सखी सुज्येष्ठा अपने दिल मे सम्राट् श्रेणिक को सर्वस्व मान चुकी है। वह श्रेणिक के बिना पल-पल विरहाग्नि मे जल रही है। उसे अपना जीवनसाथी श्रेणिक कैसे मिले, उसका यह मनोरथ आपको पूर्ण करना होगा।
अभयकुमार बोला-मैं थोडे समय बाद तुम्हारी सखी का मनोरथ पूर्ण करने का प्रयास करूंगा।
दासी बोली-थोडे समय बाद इतने मे तो ह विरहिणी सूखकर कॉटा हो जाएगी। अरे तुम जल्दी करो।
अभयकुमार ने कहा-मैं यहाँ से श्रेणिक के महल तक की सुरग खुदवाता हूँ और यह कार्य शीघ्र पूर्ण करने का प्रयास करता हूँ।
दासी ने कहा-ठीक है।
यो कहकर दासी चली जाती है और सारी बात सुज्येष्ठा से जाकर कहती है। सज्येष्ठा दासी से कहती है-तुम उस युवक से कहो, बहुत जल्दी करना। में परिपूर्ण तैयार हूँ। दासी अभयकुमार के पास जाती हे ओर कहती है कि कमार ! जल्दी करना, क्योकि विरह का एक पल भी बड़ा असह्य होता है। कुमार बतला देता है कि अमुक दिन श्रेणिक सुरग मे रथ लेकर आएगे। तव तुम्हारी स्वामिनी से कहना, तेयार रहना।