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68 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय ससम्मान विदा किया व खुद इसी चितन मे डूब गया कि मुझे सुज्येष्ठा से विवाह करना है। दूसरे दिन राजगृह के अधिपति श्रेणिक ने एक दूत वैशाली के लिए भेजा। वह दूत वेशाली गया व राजा चेटक से कहा-राजन् | मैं मगध से आया हूँ। आपकी सुयोग्य कन्या सुज्येष्ठा से राजा श्रेणिक विवाह करना चाहते हैं।
राजा चेटक ने कहा-क्या तुम्हारा स्वामी अनजान है? वह स्वय वाही कुल मे उत्पन्न है और हैहयवश मे उत्पन्न कन्या की इच्छा रखता है | समान कुल की कन्या के साथ विवाह करना चाहिए। इसलिए मैं श्रेणिक को अपनी पुत्री नहीं दे सकता हूँ। यह सुनकर दूत वहाँ से चला गया। राजगृह जाकर उसने सारी वार्ता राजा से यथावत् कह डाली। वार्ता सुनकर राजा को अत्यन्त विह्वलता की अनुभूति हुई। विरह मे उसका वदन म्लान होने लगा। सयोग से उसी समय अभयकुमार वहाँ पर पहुंचा और उसने पिताश्री को पूछा कि आप शोकाकुल क्यो हैं? श्रेणिक ने कहा-वत्स | मैंने वैशाली की राजकुमारी सुज्येष्ठा का चित्रपट देखा जिसे देख मेरा मन उसे पाने हेतु लालायित बन गया। मैंने चेटक राजा से मगनी की, लेकिन उसने अपनी कन्या देने से इनकार कर दिया। अत मैं कामविह्वल हूँ।
अभयकुमार ने कहा-मै आपकी इच्छा पूर्ण करने का प्रयास करूंगा।
तब राजा आश्वस्त हो गया। तत्पश्चात् अभयकुमार पिताश्री की कामनापूर्ति के लिए मगध सम्राट् श्रेणिक का चित्रपट बनाता है ओर इस चित्रपट को लेकर वैशाली जाता है। वहाँ जाकर कन्या अन्त पुर के पास एक दुकान किराए पर ले लेता है और उसमे पिता का चित्र लगाता है। दुकान मे अन्त पुर की दासियो की जरूरत का सामान रख लेता है। नवीन वस्तुओ के प्रति नारियो का सहज आकर्षण होता है। जब दासियाँ सामान खरीदने आती है तो अभय उन्हे कम मूल्य मे सामान दे देता है। धीरे-धीरे भीड बढती जाती है। एक दिन अभयकुमार दासियो को आते हुए देखकर अपने पिता के चित्र को प्रणाम करता है। तब दासियो ने पूछ ही लिया कि जिनको तम प्रणाम करते हो वो आखिर हैं कौन? तब अभय ने कहा-ये राजा श्रेणिक हैं जो मेरे लिए देवतुल्य हैं। अभयकुमार के ऐसा कहने पर दासियो ने उस चित्र को गौर से देखा ओर अन्त पुर मे जाकर सुज्येष्ठा को बतलाया कि एक नई दुकान में एक राजा का बहुत सुन्दर चित्र लगा है। वह तो तुम्हारे पति वनने योग्य हैं। यह सुनकर सुज्येष्ठा कामविह्वल हो गई। आँखों में ख्वाबो की तरह उस चित्र को देखने की तमन्ना तैरने लगी और वह अतरग दासी से बोली-सखी ! तुम्हे वह चित्र यहाँ लाकर मुझे दिखलाना ही होगा।
दासी ने कहा-स्वामिनी ! अभी जाती हूँ। यो कहकर वह अभयकुमार की