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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 41 अभी वर्तमान मे भगवान् अजितनाथजी के समय 170 तीर्थंकर हुए क्योकि उस समय मनुष्यो की उत्कृष्ट सख्या थी।
एक तीर्थकर दूसरे तीर्थकर से कभी भी मिल नहीं सकता क्योकि ऐसा ही शाश्वत नियम है। प्रत्येक तीर्थंकर अर्थ रूप से वही वाणी फरमाते हैं लेकिन सूत्र रूप मे अलग-अलग गुम्फन होता है। सूत्रो की रचना गणधर करते हैं। तीर्थकर भगवान् के महान् पुण्यवानी का उदय होता है। वे पूर्वभव मे बीस बोलो की आराधना करने से तीर्थंकर बनते हैं। वे बीस बोल। इस प्रकार है1 अरिहन्त भगवान् की भक्ति, उनके गुणो का चितन, उनकी आज्ञा का
पालन करने से उत्कृष्ट रसायन (भाव) आये तो तीर्थकर नाम कर्म का बधन होता है।
सिद्ध भगवान् की भक्ति और उनके गुणो का चितन करने से। 3 निर्ग्रन्थ प्रवचन रूप श्रुत ज्ञान मे अनन्य उपयोग रखने से। 4 गुरु महाराज की भक्ति, आहारादि द्वारा सेवा और उनके गुणगान
करने एव आशातना टालने से। जाति स्थविर (60 वर्ष की उम्र वाले), श्रुत स्थविर (स्थानाग, समवायाग के धारक). प्रवज्या स्थविर (20 वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले) की भक्ति करने से।
बहुश्रुत (शास्त्र-ज्ञाता) मुनिराज की भक्ति करने से। 7 तपस्वी मुनिराज की भक्ति करने से। 8 ज्ञान की निरन्तर आराधना करने से। 9 समकित का निरतिचार पालन करने से। 10 गुणज्ञ रत्नाधिको का तथा ज्ञानादि का विनय करने से। 11 भावपूर्वक उभयकाल प्रतिक्रमण करने से। 12. मूल गुण-उत्तर गुणो का निर्दोष रीति से शुद्धतापूर्वक पालन करने से। 13 सदा सवेग भाव रखने से अर्थात शुभ ध्यान करते रहने से। 14 तपस्या करते रहने से। 15 भक्तिपूर्वक सुपात्र दान देने से। 16 आचार्यादिक दस की वैयावृत्य करने से। 17 सेवा तथा मिष्ट भाषणादि के द्वारा गुरु आदि को प्रसन्न रखने से
तथा स्वय समाधिभाव मे रहने से। (क) अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय स्थविर, कुल, गण, चतुविध संघ, स्वधर्मी और क्रियावाना