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62 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय
श्रेणिक मौन रहे। मौन को स्वीकृति मानकर श्रेष्ठि ने विवाह का मुहूर्त निकलवाया और बहुत धूमधाम से अपनी पुत्री का विवाह श्रेणिक के साथ सम्पन्न किया। श्रेणिक का अभिषेक : ___ श्रेणिक अपनी नवोढा पत्नी नदा के साथ भोगो मे अनुरक्त रहने लगा। श्रेणिक वेणातट मे, ससुराल मे आनन्द से समययापन कर रहा है और इधर राजा प्रसेनजित को रोग ने घेर लिया। उसे अब लगा कि राज्य तो मुझे श्रेणिक को ही देना है, तब उसने श्रेणिक को खोजने के लिए अनेक सेवको को चहुँ दिशाओ मे भेजा । सेवक घूमते-घूमते वेणातट नगरी पहुंच गए और आखिरकार उन्होने श्रेणिक को खोज लिया। श्रेणिक ने सेवको को देखते ही पूछा-तुम यहाँ कैसे आये हो? तब सेवक बोले-आपके पिता प्रसेनजित व्याधि से ग्रस्त हैं। उन्होने आपको बहुत याद किया है। वे अब आपके बिना एक दिन भी रहने मे समर्थ नहीं है। तब श्रेणिक ने अपनी सगर्भा पत्नी नदा को सारी बात समझाई ओर समझाकर वहाँ से निकला। निकलते समय दीवाल पर लिख दिया, मैं राजगृह नगर का गोपाल हूँ। यह लिखकर श्रेणिक रथ पर सवार होकर शीघ्रातिशीघ्र राजगृह पहुँच गया।
श्रेणिक को देखकर राजा प्रसेनजित अत्यन्त हर्षित हुआ। हर्ष के ऑसुओ से ऑखे छलछला आई और अत्यन्त आह्लाद सहित राजा ने सुवर्ण कलशो से श्रेणिक का राज्याभिषेक किया। तत्पश्चात् राजा ने अपना अतिम समय समीप जानकर नमस्कार मत्र का स्मरण किया और चार शरण अगीकार करते हुए मृत्यु को प्राप्त कर देवलोक की ओर प्रस्थान किया।
राजा श्रेणिक ने अपने पिता का विधिवत् अतिम सस्कार कर दिया और न्याय-नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करने लगा। इधर श्रेणिक राज्यश्री का उपभोग कर रहा है, उधर नदा अपने पिता के यहाँ सुखपूर्वक गर्भ का निर्वहन कर रही है। यद्यपि पति अपने राज्य मे चले गए, तथापि वह कर्तव्यपालन करती हुई सतान को सुसस्कारित करने में लगी हुई है। सादगीसम्पन्न भोजन, वस्त्र एव धार्मिक श्रेष्ठ पुस्तको का स्वाध्याय करते हुए अपनी भावी सतान को बुद्धिमान बनाने हेतु निरत है। समय निरतर गतिमान है। एक दिन नदा को दोहद उत्पन्न होता है कि में हस्ती पर सवार होकर प्रचुर सम्पत्ति लुटा कर, अनेक प्राणियों का उपकार करके उन्हें अभयदान, जीवनदान दूँ। इस दोहद को अपने माता-पिता
(क) नवोढा- नवविवाहिता