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अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 43
14 तीर्थकर भगवान् के जहाँ चरण पडते हैं, वहाँ कॉटो का अधोमुख हो
जाना ।
15 ऋतुओ का सुख -स्पर्श वाली होना अर्थात् ऋतुऍ शारीरिक क्षमता के अनुकूल होना ।
16 सर्वतक वायु के चलने से एक योजन तक की भूमि साफ सुथरी) स्वच्छ होना ।
17 सुगन्धित जल की वर्षा होने से भूमि रजरहित होना ।
18 जल एव भूमि पर खिलने वाले पाँच वर्ण वाले अचित्त पुष्पो की घुटनो प्रमाण वर्षा होना ।
19 अमनोज्ञ शब्द, वर्ण, गध, रस और स्पर्श का अभाव होना ।
20 मनोज्ञ शब्द, वर्ण, गध, रस और स्पर्श का सद्भाव होना ।
21 धर्मोपदेश देते समय एक-एक योजन तक फैलने वाला, हृदय को प्रिय लगने वाला स्वर होना ।
22. अति सुकोमल अर्धमागधी भाषा मे धर्मोपदेश देना ।
23 भगवान् द्वारा उपदेश देने पर यह भाषा आर्य, अनार्य देशोत्पन्न मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी समझ जाते हैं, क्योकि ऐसा अतिशय होने से यह भाषा सब जीवो की अपनी-अपनी भाषा रूप परिणत हो जाती है ।
24 अनादिकालीन, भवान्तर एव जन्म-जात निकाचित वैर वाले वैमानिक, ज्योतिषी, भवनपति, व्यन्तर, मनुष्य आदि भगवान् के समवसरण मे प्रभु की सन्निधि मे प्रशात चित्त होकर धर्म श्रवण करते है । 25 अन्यतीर्थिक भी आकर भगवान् को वदना करते हैं।
26 अन्यतीर्थिक भी भगवान् के समीप आकर निरुत्तर हो जाते है । 27 जिस-जिस देश मे भगवान् विचरण करते है, उस-उस देश मे 25 योजन तक ईति अर्थात् धान्य के लिए उपद्रवकारी प्रचुर मूषकादि प्राणियो का अभाव होता है।
विशेष
19 काला गुरु प्रवरुक तुरुष्क आदि सुगधित द्रव्यो की धूप से सुगधित तीर्थकर भगवान् के बैठने का स्थान होना ।
20 तीर्थकर भगवान् के दोनों तरफ दो यक्ष का अतिशय अलकारों को धारण कर चॅवर बीजते रहना । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जो 19वाँ तथा 20वों अतिशय बतलाया है वह वृध्द वाचना में नहीं है। अत दूसरे प्रकार से 19वाँ तथा 20यों अतिशय बतलाते हैं।