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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 45
12 अपहतान्योत्तरत्व-भगवान् के वचनो मे कोई दोष नहीं निकाल सकता । 13 हृदयगाहिता - भगवान् के वचन श्रोताओ को मनोहर लगते हैं । 14 देशकालाव्यतीत्व - भगवान् के वचन तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार होते हैं ।
15 तत्त्वानुरूपत्व - सार्थक और सम्बद्ध पूर्वापर सम्बन्ध युक्त वचन बोलना । 16 अप्रकीर्ण प्रसृतत्व - सारयुक्त वचन बोलना ।
17 अन्योन्य प्रगृहीत- परस्पर अपेक्षा रखने वाले पदो और वाक्यों से युक्त होना । 18 अभिजातत्व - वक्ता की शालीनता होना ।
19 अतिस्निग्ध मधुरत्व - अतिस्निग्ध मधुर वचन होना ।
20 अपरकर्मबोधित्व - मर्मभेदी वचन न होना ।
21 अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व - अर्थ और धर्म के अनुकूल वचन होना ।
22 उदारत्व- तुच्छता रहित एव उदारता युक्त होना ।
23 परनिन्दात्मोत्कर्ष विप्रयुक्तत्व - स्व-प्रशसा और पर- निन्दा से रहित होना ।
24 उपगतिश्लाघत्व- जिन्हे श्रवण कर श्रोता प्रमुदित होवे ।
25 अनपनीत्व - कारक आदि व्याकरण के दोषरहित वचन होना ।
26 उत्पादिताच्छिन्न कौतुहलत्व- जिन्हे श्रवण कर श्रोताओ को कौतुहल बना रहता है।
27 अद्भुतत्व - अद्भुत वचन होना ।
28 अनतिविलम्बितत्व - धारा प्रवाह बोलना ।
29 विभ्रम-विक्षेप- रोष - भयादि से रहित वचन बोलना ।
30 अनेक जाति सश्रयाद्विचित्रत्व - वस्तु के स्वरूप का वर्णन करने वाले वचन होना ।
31 आहितविशेषत्व - सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा विशेषतायुक्त वचन होना । 32 साकारत्व-पृथक्-पृथक् वर्ण, पद, वाक्य के आकारयुक्त वचन होना । 33 सत्त्वपरिगृहीतत्व - साहस से परिपूर्ण वचन होना ।
34 अपरिखेदित्व - खिन्नता रहित वचन होना ।
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35 अत्युच्छेदित्व- इच्छित अर्थ की सम्यक् सिद्धि करने वाले वचन होना । " तीर्थकर भगवान् का जीवन निर्दोष होता हे। वे अठारह दोषरहित होते है - मिथ्यात्व - वस्तु के अयथार्थ स्वरूप पर श्रद्धा होना मिथ्यात्व है । भगवान् क्षायिक समकिती होने से मिथ्यात्व दोषरहित होते हैं ।
अज्ञान - भगवान् केवलज्ञान से युक्त होते हैं। ज्ञानावरणीय कर्म सर्वथा
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