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28 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय
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देखते ही रहे। वे मानो सब कुछ विस्मृत हो गए। तब भगवान् ने उन्हे सम्बोधित करके कहा- व्यक्त भारद्वाज । तुम्हारे मन मे बहुत समय से सशय चल रहा है। उसका कारण है वेद मे परस्पर विरोधी वाक्यो का तुमने श्रवण किया, लेकिन उनका सम्यक् अर्थ नहीं जाना । तुमने वेद का एक वाक्य श्रवण किया, "स्वपनोपम वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरजसा विज्ञेय ।" अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत् स्वप्न सदृश है । यह ब्रह्मविधि (स्पष्ट) रूप से जानने योग्य है। इस वाक्य को पढकर तुमने यह चितन कर लिया कि सारा ससार स्वप्न के समान है। किन्तु दूसरी जगह तुमने वेद वाक्य को श्रवण किया - " द्यावा पृथिवी आपो देवता" अर्थात् पृथ्वी देव है, जल देव है, इससे पदार्थों का अस्तित्व सिद्ध होता है । इससे तुम्हारे मन मे सशय हो गया कि यह दिखने वाला ससार काल्पनिक है या इसमे किसी पदार्थ की सत्ता है? हे व्यक्त ! मैं तुम्हे सम्यक् अर्थ बतला दूँगा जिससे तुम्हारा सशय दूर होगा। जो पदार्थ तुम्हे आँखो से प्रत्यक्ष दिखलाई दे रहे हैं, उन्हे तुम स्वप्नवत् कैसे मान लोगे? जैसे इस लोक मे तुम अपना स्वय का अस्तित्व मानते हो वैसे ही पृथ्वी, अप्, वनस्पति, जो साक्षात् दिखलाई देते हैं, उनका अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए। वायु का भी हमे स्पर्श से ज्ञान होता है। सभी पदार्थों का कोई आधार होना चाहिए और वह आधार है आकाश (खाली जगह ) ।
इस प्रकार प्रत्यक्ष दिखने वाले जीव और अजीवो का स्वरूप तुम्हे स्वीकार करना चाहिए। वेद मे ससार को स्वप्नवत् बतलाया इसका अर्थ यह नहीं कि ससार मे पदार्थों का अभाव है, लेकिन इसका यह अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति सासारिक पदार्थों के आकर्षण मे आसक्त न बन जाए। इसी उद्देश्य से ससार को असार जानकर मानव निर्मोही बनकर ससार से विरक्त बने और शाश्वत सुख-धाम मोक्ष को प्राप्त करे ।
भगवान् के ऐसा फरमाने पर व्यक्तभूति ने कहा - भते । मेरा सशय सर्वथा छिन्न हो गया है। मैं आपके पावन सान्निध्य मे चारित्र अगीकार करना चाहता हूँ।
भगवान् ने व्यक्तभूति के विरक्तिपरक भावो को जानकर 500 शिष्यो सहित उन्हे जिन-धर्म मे दीक्षित कर दिया । व्यक्तभूति के समाचारो का बेताबी से इतजार कर रहे थे-सुधर्मा । वे जानना चाहते थे कि व्यक्तभूति लौटेगा या समर्पित बनेगा । तभी उन्हे यज्ञ मण्डप मे समाचार मिले कि व्यक्तभूति ने 500 शिष्यो सहित भगवान् महावीर की धर्म प्रज्ञप्ति को स्वीकार कर लिया है 116
यह श्रवण कर उन्होने सोचा कि अब मुझे भी प्रभु को वदन- नमस्कार करके उनकी पर्युपासना करनी चाहिए। वे भी इसी उद्देश्य को लेकर समवसरण की ओर भक्तियुक्त कदमो से चलने लगे ।
(क) आकाश- सभी द्रव्यों का आधारभूत द्रव्य ( खाली जगह )