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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 21 था। इधर यज्ञ का कार्य बहुत जोरो से चल रहा था, उधर आकाश मण्डल मे यत्र-तत्र-सर्वत्र देव विमान दिखाई देने लगे।
तभी इन्द्रभूति ने सगर्व सोमिलार्य से कहा-“देखो आर्य । यज्ञ की महिमा देखकर ये देव-विमान हमारे यहाँ अवतरित हो रहे है। 33
सभी मण्डप की जय-जयकार करने लगे। खचाखच भरा यज्ञ मण्डप जय-जयकारो से गुजित हो उठा। सब टकटकी लगाकर आकाश की ओर निहारने लगे, लेकिन देखकर हतप्रभ रह गये । यह क्या ? विमान इधर आते-आते रुक गये ।तब इन्द्रभूति ने पूछा-क्या पावा मे और कोई ऐद्रजालिक आया हआ है?
सोमिल ने कहा-जनश्रुति है कि महावीर नामक कोई सर्वज्ञ आये हैं और आज उनका समवसरण हो रहा है।
इन्द्रभूति-महावीर सर्वज्ञ क्या मुझसे बड़ा इस दुनिया मे कोई विद्वान है? वह तो मायावी है, मायावी ! उसने देवो को भी अपने वश मे करके भ्रमजाल मे डाल दिया है। देव आये थे यज्ञ मण्डप मे, लेकिन उस मायावी ने भ्रमित कर दिया। अभी जाता हूँ, उस मायावी के मायाजाल की धज्जियाँ उडाकर आता हूँ। यो कहकर इन्द्रभूति गौतम अपने 500 शिष्यो सहित चल पडे।
इन्द्रभूति के कदम तीव्रता से समवसरण की ओर गतिमान हो रहे हैं। मन उससे भी तीव्र चल रहा है कि कब उस मायावी को देखू और कब परास्त करूँ!, लेकिन अहकारी कभी किसी को परास्त नहीं कर सकता। वह या तो स्वय ही पराजित होकर चरणो मे गिरता है या अपने सम्पूर्ण जीवन के सदगुण अहकार की आग मे झोक देता है। इन्द्रभूति के अहकार को भी चुनौती है।
पथ मे गमन करते हुए स्वय की विजय का दम्भ मन मे कुलाचें भर रहा था। दभ मे अपने ज्ञान को प्रशसनीय मानते हुए न जाने कब पथ समाप्त हो गया, पता ही नहीं चला।
वह चलते-चलते भगवान् के समवसरण के समीप पहुंचता है। समवसरण की दूर से ही आभा देख कर दॉतो तले अगुली दबाने लगता हैं। अरे! यह तो बाहर से ही अत्यन्त आकर्षक लग रहा है तो फिर भीतर का तो कहना ही क्या .. ..?
कदम बढ़ रहे हैं। आवेग शात बन रहे हैं। शनै -शने समवसरण में प्रवेश (क) विमान-पुण्य करने वाले जिनका विशेष भोग करते है, विमान है। (ख) कुलाचे-उछाले