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अनेकान्त-58/1-2
काव्य, नाटक, चम्पु, तर्क, छन्द, अलङ्कार, व्याकरण, संगीत, शिल्पशास्त्र-स्यात् ही कोई विषय ऐसा बचा हो जिस पर जैनविद्वानों ने सफलतापूर्वक कलम चला कर भारती के भंडार को समृद्ध एवं अलंकृत न किया हो। स्थापत्य, मूर्ति, चित्र, नाटक, संगीत, काव्य सर्व प्रकार की ललित कलाओं में जैनों ने नायकत्व किया। इस सबके प्रमाण उपलब्ध जैनसाहित्य और पुरातत्व में पर्याप्त मिलते
भाषाओं और लिपि के विकास में सर्वाधिक भाग जैनों ने ही लिया और इसी जैनयुग में। ब्राह्मीलिपिका आविष्कार कहा जाता है भगवान ऋषभदेव ने किया था, किन्तु वह हमारे युग से पूर्व की बात है, तथापि ब्राह्मी लिपि का सर्व-प्रथम उपयोग अधिकतर जैनों द्वारा ही हुआ मिलता है। मोहनजोदड़ो के मुद्रालेखों के अतिरिक्त ई. पूर्व 5वीं शताब्दी का बड़ली अभिलेख, मौर्यकालीन गुइभिलेख, शिलाभिलेख, स्तंभ लेखादि, खारबेल के अभिलेख, गुजरात यथा दक्षिण के अभिलेख इसके साक्षी हैं। देश के कोने कोने में और प्रधान एवं महत्वपूर्ण स्थानों में जैनतीर्थ उसी प्राचीन काल ले चले आते हैं। ब्राह्मी से नागरी लिपि का विकास जैन विद्वानों द्वारा ही हुआ। स्थापत्य-कला की नागरशैली के अधिष्ठाता भी वही थे। चित्रकला का शुद्ध भारतीय प्रारंभ भी इन्होंने किया। स्तूप, गुफायें, चैत्य, मन्दिर, मूर्ति इत्यादि के प्रथम जन्मदाता इस जैन युग के जैन ही थे।
समाज व्यवस्था तथा आधुनिक जातियों की पूर्वज व्यवसायिक श्रेणियों और निगमों का संगठन एवं निर्माण जैन युग में जैन नीतिशास्त्र के आचार्यो तथा जैन गृहस्थ व्यवसायियों द्वारा ही हुआ।
जैन व्यापारियों तथा श्रमणाचार्यों द्वारा भारत का प्रकाश भारतेतर देशों तक फैला, वृहद् भारत के निर्माण में इनका पूरा पूरा हाथ था।
देश के कोने कोने में उस युग सम्बन्धी जैन स्मारक आज भी उपलब्ध हैं, और चाहे अल्प अल्प संख्या में ही हो देश के प्रत्येक भाग में जैनों का अस्तित्व है।
वास्तव में बौद्धधर्म की स्थिति तो उस युग में जहाँ तक भारतवर्ष का