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अनेकान्त-58/1-2
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अकेले दिगम्बर जैन आम्नाय में पिच्छीधारी धर्मगुरुओ गुरुणियों की संख्या 500 के लगभग होगी तथा उनके अकेले चातुर्मास काल पा ही समाज का अरबों व्यय हो जाता है। हमें धर्म प्रभावना के नाम से किए गए किसी भी आयोजन पर कोई आपत्ति नही है, यद्यपि वैभवपूर्ण प्रदर्शनों से समाज का कोई भला नहीं होता। वृहद् क्रिया काण्ड भी जैन धर्म की मूल भावना से मेल नहीं खाते।
हमारे धर्मगुरू/गुरुणियां जिनके प्रति समाज में अत्यन्त श्रद्धा व सम्मान है कुछ समाज सुधार की ओर भी ध्यान दें तो उनका समाज पर स्थायी उपकार रहेगा। जैसा कुछ मुनि श्रावकों को दिन में विवाह करवाने, विवाह में अपव्यय न करने, दहेज कुप्रथा का विरोध करने आदि का उपदेश अपने प्रवचनों में देकर कर रहे हैं।
प्रकाण्ड तर्कणा शक्ति के धनी श्री अजित प्रसाद जी का जीवन सादा एवं सरल था। वे दिखावे में विश्वास नहीं रखते थे। आपने देश, समाज से अल्प लेकर बहुत अधिक दिया है। आप उत्तम कोटि के पुरुष थे। कविवर बुधजन की ये पंक्तियां आप पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं
अलप थकी फल दे घना, उत्तम पुरुष सुभाय।
दूध झरै तृण को चरै, ज्यों गोकुल की गाय ।। आपने शोधादर्श जुलाई 2004 के अंक में 'मेरी अन्तिम अभिलाषा' शीर्षक से लिखा है- “मेरी एक ही अन्तिम अभिलाषा है। मैंने अपने धर्म और समाज से बहुत कुछ सीखा और पाया है। उनके उपकार से मैं कभी उऋण नहीं हो सकता। मेरी यही एक अभिलाषा है कि जिनेन्द्र देव की अनुकम्पा से मुझमें इतनी शक्ति बनी रहे कि मै अन्तिम श्वास तक धर्म व समाज की कुछ न कुछ सेवा कर सकू तथा यदि मेरे किसी सुकृत्य के फलस्वरूप मुझे पनः नरभव प्राप्त हो तो मेरा जन्म जैन धर्म व जैन समाज में ही हो।" __ श्री अजित प्रसाद जी जैसे व्यक्तित्व को खोना जैन समाज से अमूल्य रत्न छिन जाना है। आपने जीवनकाल में साहित्य एवं समाज की जो अनवरत सेवा