________________
बाहुबली प्रतिमा की पृष्ठभूमि
-लक्ष्मीचन्द्र सरोज
श्रवणबेलगोला के बाहुबली
जिस प्रतिमा ने एक सहस्र बसन्त, एक सहस्र हेमन्त, एक सहस्र ग्रीष्म, एक सहस्र शरद और एक सहस्र शिशिर काल देखे तथा मध्ययुग में सहस्र जीवन-संघर्ष उत्थान पतन, सुख-दुख मूलक परिसर-परिवेश देखे, उस पनीत प्रतिमा को आचार्य नेमीचन्द्र 'सिद्धान्त चक्रवर्ती' के सान्निध्य में सेनापति और अमात्य चामुण्डराय ने सन् 981 में स्थापित किया था
और इस पावन प्रतिमा का इक्कीसवीं शताब्दी का प्रथम महामस्तकाभिषेक महोत्सव 8 फरवरी 2006 से 19 फरवरी 2006 पर्यत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जा रहा है।
संघर्ष-आक्रमण-विग्रह, संस्कृति-जन्म-जीवन-मरण देखते और लेखते हुए महामानव भगवान् बाहुबली की जीवन्त प्रतिमा अदम्य उत्साहपूर्वक आज भी गौरव से मस्तक उन्नत किए खड़ी है, अपनी ऐतिहासिकता, पावनता, तप-त्याग, वीतरागता और विराटता की प्रतीक बनी है।
जिस प्रकार बाहुबली की प्रतिमा वास्तु कला में अप्रतिम है उसी प्रकार बाहुबली अपने मानवीय जीवन में भी अप्रतिम थे। उनका बल, उनका भोग, उनका ध्यान, उनका योग उनकी स्वतन्त्रता, उनका स्वाभिमान, उनका केवलज्ञान, उनका मोक्ष-प्रस्थान उनका सारा जीवन ही अप्रतिम था। वे जैसे पहले कामदेव थे वैसे सर्वप्रथम मोक्षगामी भी थे। विस्मय की बात तो यह है कि तीर्थकर नहीं होकर भी वे तीर्थकर से पहले मोक्ष गये। वे अपने पिता श्री ऋषभदेव या महाप्रभु आदिनाथ, जो इस युग के सर्वप्रथम तीर्थकर थे, उनसे भी पहले मोक्ष चले गए।