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अनेकान्त 58/3-4
संतुष्ट किया होगा। प्रतिमा के सिर से जांघों तक अंग-निर्माण के लिए चट्टान के अवांछित अंशों को आगे, पीछे और पार्श्व से हटाने मे कलाकार की प्रतिभा श्रेष्ठता की चरम सीमा पर जा पहुंची है। x x x x पार्श्व के शिलाखण्डों में चीटियों आदि की बांबियां अकित की गयी हैं और कुछेक में से कुक्कुट-सर्पो अथवा काल्पनिक सर्यों को निकलते हुए अंकित किया गया है। इसी प्रकार दोनों ही ओर निकलती हई माधवी लता को पांव और जांघो से लिपटती और कंधो तक चढ़ती हुई अंकित किया गया है, जिनका अंत पुष्पों या बेरियों के गुच्छों के रूप में होता है। xxx यह अंकन किसी भी युग के सर्वोत्कृष्ट अंकनों में से एक है। नुकीली ओर सवेदनशील नाक, अर्धनिमीलित ध्यानमग्न नेत्र, सौम्यस्मित-ओष्ठ, किंचित् वाहर को निकली हुई ठोड़ी, सुपुष्ट गाल, पिण्डयुक्त कान, मस्तक तक छाये हुए धुंघराले केश आदि इन सभी से आकर्षक, वरन देवात्मक मुखमण्डल का निर्माण हुआ है। आठ मीटर चौडे बलिष्ठ कंघे, चढ़ाव-उतार रहित कुहनी और घुटनों के जोड़, संकीर्ण नितम्ब जिनकी चौड़ाई सामने से तीन मीटर है और जो वेडौल
और अत्यधिक गोल हैं, ऐसे प्रतीत होते हैं मानो मूर्ति को सतुलन प्रदान कर रह हों, भीतर की ओर उरेखित नालीदार रीढ़, सुदृढ़ और अडिग चरण, सभी उचित अनुपात में, मूर्ति के अप्रतिम सौंदर्य और जीवन्तता को बढ़ाते हैं, साथ ही वे जैन मूर्तिकला की उन प्रचलित परम्पराओं की ओर भी संकेत करते है जिनका दैहिक प्रस्तुति से कोई सम्बन्ध न था- कदाचित् तीर्थकर या साधु के अलौकिक व्यक्तित्व के कारण, जिनके लिए मात्र भौतिक जगत् का कोई अस्तित्व नहीं। केवली के द्वारा त्याग की परिपूर्णता-सूचक प्रतिमा की निरावरणता, दृढ़ निश्चयात्मकता एवं आत्मनियन्त्रण की परिचायक खड्गासनमुद्रा और ध्यानमग्न होते हुए भी मुखमण्डल पर क्षलकती स्मिति के अकन में मूर्तिकार की महत् परिकल्पना और उसके कला-कौशल के दर्शन होते हैं। सिर और मुखाकृति के अतिरिक्त हाथों, उंगलियों, नखों, पैरो तथा एड़ियो का अकन इस कठोर दुर्गम चट्टान पर जिस दक्षता के साथ किया गया है, वह आश्चर्य की वस्तु है। सम्पूर्ण प्रतिमा को वास्तव में