Book Title: Anekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 247
________________ अनेकान्त 58/3-4 प्राचीन है कि पाश्चात्य विद्वानों को मुक्तकण्ठ से यह स्वीकार करना पड़ा है कि भारत की संस्कृति और धर्मो में मूर्तिपूजा के प्रणेता जैन हैं । 112 यहां यह कहना असंगत न होगा कि जैन धर्म की मूर्तिपूजा संबंधी मौलिक भावना अन्य सभी धर्मो से बिलकुल जुदी है और बहुत अंशों में तो उनसे बिलकुल विपरीत ही है । जैनों की मूर्तिपूजा चरम त्याग, क्षमा, दया, आत्मसंयम, आत्मचिंतन आदि बातों पर अवलम्बित है जबकि दूसरे धर्मों के देव संसारी माया-मोह में फॅसे रहने के कारण सांसारिक वैभवों में लिप्त और अनुरक्त दिखाई पड़ते हैं । अन्य धर्मवालों के देव तरह-तरह आभूषणों से सज्जित, विविध सांसारिक वासनाओं को प्रदीप्त करनेवाले हाव-भावों और लीलाओं में संलग्न दिखाई पड़ते हैं। बाहुबली की मूर्ति की स्थापना डंकणाचार्य द्वारा प्रतिपादित होयसल - मूर्तिकला के प्रतीक शारीरिक सौंदर्य को बताने के लिये या मिश्र देश के अधिकार, अहंकार, साम्राज्य आदि भावव्यंजक देवों की महिमा बताने के लिये या जातीय मद को व्यक्त करने वाली रोमन पूर्व - पुरुषों की महत्ता बताने के लिये नहीं हुई परंतु जैन धर्म द्वारा अनुमोदित ऊंचे स्वरूपाचरण की ' वपुषा प्ररूपयन्ती' परिभाषा का दर्शन कराने के लिये की गई है। मैंने ईसाइयों को यहां सजदा करते देखा है। पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके धर्म में भी त्याग और आत्मसंयम की बड़ी तारीफ की गई है । और उन तारीफों को इस मूर्ति में ऐसी कुशलता और खूबी से उतारा गया है कि हमें तो यही लगता है कि यह मूर्ति सचमुच ही हमारे धर्म के तत्वों को प्रतिपादित कर रही है । भगवान् बाहुबली की मूर्ति विश्ववंद्य मूर्ति है और इसीलिये जैन बद्री का तीर्थ भी विश्वतीर्थ है। सन् 1799 में चौथे मैसूर युद्ध में टीपू सुलतान को हराकर आर्थर वेलेस्ली (जो बाद में ग्रांड ड्यूक ऑफ वेलिंग्डन के नाम से मशहूर हुआ और जो सन् 1799 से 1805 तक भारत का गवर्नर-जनरल रहा था ) भी इस आश्चर्यकारी मूर्ति के दर्शन करने के लिये यहाँ आया था और इसे

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