Book Title: Anekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 278
________________ अनेकान्त 58/3-4 तत्कालीन कुण्डली से कहा जाता है। दूसरा प्रकार यह भी है कि चर स्थिरादि लग्न नवांश और त्रिशांश से भी मूर्ति का फल कहा गया है 1 143 लग्न, नवांशादि का फल लग्न स्थिर और नवांश भी स्थिर राशि का है तथा त्रिशांशदिक भी षड्वर्ग के अनुसार शुभ ग्रहों के हैं । अतएव मूर्ति का स्थिर रहना और भूकम्प, बिजली आदि महान् उत्पातों से मूर्ति को रक्षित रखना सूचित करते हैं। चोर-डाकू आदि का भय नहीं हो सकता। दिन प्रतिदिन मनोज्ञता बढ़ती है और शक्ति अधिक आती है। बहुत काल तक सब विघ्न-बाधाओं से रहित हो कर उस स्थान की प्रतिष्ठा को बढ़ाती है । विधर्मियों का आक्रमण नहीं हो सकता और राजा, महाराजा, सभी उस मूर्ति का पूजन करते हैं । सब ही जन-समुदाय उस पुण्य-शाली मूर्ति को मानता है और उसकी कीर्ति सब दिशाओं में फैल जाती है आदि शुभ बातें नवांश और लग्न से जानी जाती हैं । चन्द्रकुण्डली के अनुसार फल वृष राशि का चन्द्रमा है और यह उच्च का है तथा चन्द्रराशि चन्द्रमा से बारहवां है और गुरु चन्द्र के साथ में है तथा चन्द्रमा से द्वितीय मंगल और दसवें बुध तथा बारहवें शुक्र है । अतएव गृहाध्याय के अनुसार गृह 'चिरंजीवी' योग होता है। इसका फल मूर्ति को चिरकाल तक स्थायी रहना है। कोई भी उत्पात मूर्ति को हानि नहीं पहुंचा सकता है । परन्तु ग्रह स्पष्ट के अनुसार तात्कालिक लग्न से जब आयु बनाते हैं तो परमाणु तीन हजार सात सौ उन्नीस वर्ष, ग्यारह महीने और 19 दिन आते हैं । मूर्ति के लिए कुण्डली तथा चन्द्रकुण्डली का फल उत्तम है और अनेक चमत्कार वहाँ पर हमेशा होते रहेंगे । भयभीत मनुष्य भी उस स्थान में पहुंच कर निर्भय हो जायगा ।

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