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अनेकान्त 58/3-4
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छ्यानवे लाख रानियों से घिरा भरत चक्रवर्ती वासना से मुक्त भी हो सकता है और बिना पली वाला व्यक्ति वासना के प्रति आसक्त हो सकता है। ऊपर-ऊपर से यह निर्णय कर लेना कि कौन क्या है, बहुत मुश्किल है। आगम का प्रकाण्ड ज्ञाता भी घोर मिथ्यात्वी हो सकता है।
विधवा-विवाह और अन्तर्जातीय/विजातीय विवाह की चर्चा नई नहीं है। इसके पक्ष और विपक्ष में लिखा जाता रहा है। लेकिन एक बात हमें अभी तक समझ में नहीं आई है कि विवाह एक आवश्यक धार्मिक कृत्य है या महज सामाजिक कृत्य । यदि यह एक आवश्यक धार्मिक कृत्य है तो भगवान् महावीर सहित पाँच तीर्थकर बालयति क्यों रहे? और यदि यह महज सामाजिक कृत्य है तो इसे देश काल के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में क्यों नहीं देखा जाता है। और यदि यह थोड़ा धार्मिक भी है तो भगवान् महावीर स्वयं बाल ब्रह्मचारी रहकर विवाह सम्बन्धी उपदेश क्यों दंते? (कम से कम भगवान् महावीर ने इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है।)
वर्ण और जाति के सम्बन्ध में जैन शास्त्रों में जो कुछ लिखा मिलता है वह वैदिक व ब्राह्मण परम्परा से प्रभावित प्रतीत होता है। इस बात को बहुत ते 'आगम के ज्ञाता' विद्वान स्वीकार नहीं करेंगे।
प्राचीनकाल में आज जैसी व्यवस्था तो थी नहीं कि हर विषय का एक विशेषज्ञ हो- गणित भौतिकी, राजनीति, समाज-शास्त्र आदि पहले जो कुछ भी इन विषयों में लिखा गया वह सव धार्मिक ग्रन्थों का हिस्सा मान लिया गया। यदि इन विषयों पर किसी जैन धर्मावलंबी विद्वान ने लिखा तो वह 'जैन धर्म' का हिस्सा हो गया। यदि ईसाई ने लिखा तो 'इसाई धर्म' का
और हिन्दू ने लिखा तो 'हिन्दू धर्म' का। इन सब बातों को धर्म मान लेने पर उस धर्म की मूल आत्मा आहत होती है।
वर्ण-व्यवस्था, जाति-प्रथा और विवाह आदि जितने भी विषय हैं वे सब समाज-व्यवस्था से सम्बन्धित हैं, धर्म से उनका विशेष कुछ लेना-देना नही है। पहले मात्र मानव था, फिर वर्ण-व्यवस्था स्थापित हुई और उसके